Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 232
________________ परीषह जय होता है । सत्य-राग, द्वेष या मोह से प्रेरित सव प्रकार के झूठ वचनों का त्याग करना और आगम के अनुरूप बोलना सत्य महाव्रत है । 2 स्थूल झूठ का त्याग करना और जीवो का घात करने वाला सत्य - वचन भी नहीं बोलना सत्य - अणुव्रत है। सत्यधर्म- जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुचाने वाले वचनो को छोडकर अपने और दूसरे का हित करने वाले वचन कहता है उसके सत्यधर्म होता है । अथवा सज्जन पुरुषो के साथ श्रेष्ठ वचन बोलना सत्य धर्म है। सत्य-प्रवाद - जिसमे वचन- गुप्ति, वचन -सस्कार के कारण, वचन-प्रयोग, बारह प्रकार की भाषाए, दस प्रकार के सत्य, वक्ता के प्रकार आदि का विस्तार से विवेचन हे वह सत्य प्रवाद पूर्व नाम का छठवा पूर्व है । सत्य-मन-वचन- यथार्थ या सत्य को जानने या कहने मे जीव के मन और वचन की प्रयत्न रूप प्रवृत्ति को सत्य मन व वचन योग कहते हे । जैसे - यथार्थ जल जिसमे स्नान किया जा सकता है जिसे पी सकते है । उसे ही जल जानना या जल कहना । सत्व - 1 सत्व का अर्थ अस्तित्व हे । 2 सत्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है । 3 जो पूर्व संचित कर्म हे उनका आत्मा मे अवस्थित रहना सत्व कहलाता है । इसे सत्ता भी कहते है । सभूत-व्यवहार-नय-गुण और गुणी मे भेद करके कथन करने वाला सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे-आत्मा किसी को दिखाई नहीं देती किन्तु इसकी जानने देखने की शक्तिया अर्थात् गुण सबके अनुभव आते हैं । अत गुणो का अलग से नाम लेकर आत्मा के स्वरूप 288 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश

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