Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 167
________________ प्रमोद -गुणीजनो को देखकर मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा अतरग भक्ति और अनुराग का व्यक्त होना प्रमोद है । प्रयोग-क्रिया - शरीर के द्वारा होने वाली गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति ही प्रयोग क्रिया है । प्रवचन - वर्ण, पंक्ति आदि रूप द्वादशाग को प्रवचन कहते है । अथवा अर्हन्त भगवान के वचन रूप आगम को प्रवचन कहते है । प्रवचन -भक्ति- द्वादशाग रूप प्रवचन मे कहे गए अर्थ का अनुष्ठान करना प्रवचन - भक्ति है । अथवा प्रवचन मे अनुराग रखना प्रवचन - भक्ति है | यह सोलह-कारण भावना मे एक भावना हे । प्रवचन - मातृका - पाच समिति और तीन गुप्ति को अष्ट प्रवचन - मातृका कहते हैं। ये अष्ट प्रवचन - मातृका मुनि के ज्ञान, दर्शन ओर चारित्र की सदा ऐसे रक्षा करती है जैसे पुत्र का हित करने मे सावधान माता उसे सदा पापो से बचाती है । प्रवचन -वत्सलत्व- जिस प्रकार गाय अपने बछडे से सहज स्नेह करती है उसी प्रकार धर्मात्मा को देखकर सहज स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचन - वत्सलत्व है | यह सोलह कारण भावना मे एक भावना है । प्रव्रज्या - जिनदीक्षा को प्रव्रज्या कहते हे । वैराग्य से ओतप्रोत होकर निर्ग्रथ गुरु की शरण मे जाकर समस्त आरभ - परिग्रह का त्याग करके यथाजात वालकवत् निर्विकार नग्न रूप धारण करना और समता पूर्वक तपस्वी जीवन जीने की प्रतिज्ञा करना प्रव्रज्या कहलाती है । प्रशग - पचेन्द्रिय के विषयो मे तथा तीव्र क्रोधादि में मन को नही जाने जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 169

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