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जाति के अनुरूप गध उत्पन्न होती है उसे गध-नामकर्म कहते है। यह दो प्रकार का है-सुरभि-गध और दुरभि-गध नामकर्म । गन्धकुटी-समवसरण मे तीर्थकर भगवान के बैठने का स्थान गधकुटी कहलाता है। इसके मध्य मे अत्यन्त मनोहर सिहासन होता है। जिस पर स्थित कमल के ऊपर भगवान अतरिक्ष मे विराजमान होते है। गरिमा-ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से वज्र से भी गुरुतर अर्थात् भारी शरीर बनाया जा सके उसे गरिमा-ऋद्धि कहते है। गर्तपूरण-वृत्ति-जिस किसी भी प्रकार से गड्डा भरने की तरह साधु स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट अन्न जल के द्वारा पेट रूपी गड्ढे को भर देते हैं, इसलिए साधु की यह आहार चर्या गर्तपूरण या स्वभ्रभरण-वृत्ति कहलाती है। गर्भकल्याणक-तीर्थकरो के गर्भ मे आने पर होने वाला एक उत्सव । इस अवसर पर इन्द्र आकर तीर्थकर के माता-पिता को भक्तिपूर्वक सिहासन पर बैठाकर उनका अभिषेक-सम्मान आदि करते है और तीर्थकर का स्मरण कर तीन प्रदक्षिणा देते है। गर्भजन्म-माता के उदर मे रज और वीर्य के परस्पर मिश्रण को गर्भ कहते है। इस गर्भ को ही शरीर रूप से ग्रहण करके जीवो का उत्पन्न होना गर्भजन्म है। जरायुज, अण्डज और पोतज ये तीन गर्भजन्म के भेद है। गर्भजन्म मनुष्य और तिर्यच के ही होता है। गर्दा-गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करना गर्दा कहलाती है। गारव-गर्व या बडप्पन को गारच कहते हैं। यह तीन प्रकार का
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 87