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काटे आदि के विधने से उत्पन्न हुई पीडा को समता पूर्वक सहन करता हुआ अपने छह आवश्यको का पालन दृढता पूर्वक करता है उस साधु के यह चर्या - परीषह-जय हे|
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चल-दोष - जल में उठने वाली तरगो के समान श्रद्धान का चलायमान होना चल दोष है । जैसे जल मे अनेक लहरे उठती हैं और शात हो जाती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के मन मे अनेक विचार उठते है। यद्यपि सभी तीर्थकर या अर्हन्त भगवान एक समान होते है पर कभी ऐसा विचार आ जाता है कि श्री शांतिनाथजी शान्ति देने वाले ओर श्री पार्श्वनाथ जी विघ्न-बाधा दूर करने वाले है । यही क्षयोपशम सम्यग्दर्शन का 'चल' नामक दोष है ।
चलित - रस - घी, दूध, दही आदि रसो का स्वाद बिगड जाने पर उन्हे चलित - रस कहते है । चलित रस अभक्ष्य है।
चारित्र - मोहनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के असयम भाव होता है वह चारित्र - मोहनीय कर्म हे अथवा वाह्य मे पापो से निवृत्ति और अतरग मे कषाय का अभाव होना चारित्र है । जिस कर्म के उदय से जीव चारित्र को ग्रहण नहीं कर पाता वह चारित्र - मोहनीय कर्म कहलाता है | चारित्र मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-कषाय वेदनीय ओर नो कषाय वेदनीय । कषाय के सोलह भेद हैं-- अनन्तानुवधी- क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान - क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान- क्रोध, मान, माया, लोभ, सज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ । नो कषाय के नौ भेद - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद ओर नपुसक वेद ।
94 / जेनदर्शन पारिभाषिक कांश