________________
क्षीण-कपाय - मोहनीय कर्म का क्षय करने वाले वारहवे गुणस्थानवर्ती निर्ग्रथ वीतराग साधु को क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ कहते है ।
क्षीरस्रावी ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के हाथ मे दिया गया रूखा-सूखा आहार तत्काल दूध के समान हो जाता हे या जिसके प्रभाव से साधु के वचन सुनने मात्र से मनुष्य ओर तिर्यचो के दुखादि शात हो जाते हे उसे क्षीरस्रावी ऋद्धि कहते है ।
क्षुद्रभव - एक अन्तर्मुहूर्त मे लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जितने भव होते
क्षुद्रभव कहलाते हे । एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव 66132, दो, तीन व चार इन्द्रिय के 180, पचेन्द्रिय के 24 इस प्रकार कुल 66336 क्षुद्रभव एक अतर्मुहूर्त में हो सकते है।
क्षुधा - परीषह - जय - जो साधु आहार नही मिलने पर या अन्तराय हो जाने पर उत्पन्न होने वाली क्षुधा अर्थात् भूख की वेदना को समतापूर्वक सहन करता है, उसके क्षुधा - परीषह जय होता है ।
क्षुल्लक- जो श्रावक की समस्त ग्यारह प्रतिमाओ का पालन करते है, शरीर पर एक चादर और एक कोपीन रूप वस्त्र धारण करते है और दिन मे एक बार बैठकर थाली या कटोरे मे गृहस्थ के द्वारा दिया गया प्रासुक आहार लेते है वे क्षुल्लक कहलाते है ।
क्षेत्र - वर्तमान काल सबधी निवास का नाम क्षेत्र है । किस गुणस्थान या मार्गणा स्थान वाले जीव इस लोक मे कहा और कितने भाग मे पाए जाते है यह जानकारी क्षेत्र के द्वारा मिलती है।
क्षेत्र - परिवर्तन - क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद है - स्वक्षेत्र परिवर्तन और
82 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश