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या क्षायिक-सम्यग्दर्शन कहते है। क्षायोपशमिक-चारित्र-चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा मे जो विषय-कषाय से निवृत्ति और व्रतादिक मे प्रवृत्ति रूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक-चारित्र कहते है। क्षायोपशमिक-ज्ञान-मतिज्ञानावरणादि अपने-अपने आवरणी कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति, श्रुत, अवधि और मन पर्यय इन चार ज्ञानो को क्षायोपशमिक-ज्ञान कहते है। क्षायोपशमिक-भाव-जो कर्मो के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक-भाव है। क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद है-मतिज्ञान आदि चार ज्ञान, कुमति आदि तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन आदि तीन दर्शन, दान आदि पाच लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और सयमासयम। क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व-अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और सम्यक्-मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियो के उदयाभावी क्षय
और उन्ही के सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले तत्त्वार्थ-श्रद्धान को क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व कहते
क्षितिशयन-व्रत-जीवन पर्यंत प्रासुक भूमि पर या तृणादि से बने सस्तर पर किसी एक करवट से शयन करने की प्रतिज्ञा लेना क्षितिशयन-व्रत कहलाता है। यह मुनियो का एक मूलगुण है। क्षिप्र-अवग्रह-वस्तु को शीघ्रतापूर्वक अर्थात् जल्दी से जान लेना क्षिप्र-अवग्रह कहलाता है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 81