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का हे-निश्चय-काल और व्यवहार-काल । काल-परिवर्तन-कोई जीव उत्सपिर्णी काल के प्रथम समय मे उत्पन्न हुआ व आयु पूर्ण होने पर मर गया फिर वह भ्रमण करके द्वितीय उत्सर्पिणी काल के द्वितीय समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण होने पर मर गया, फिर वह भ्रमण करके तृतीय उत्सर्पिणी के तृतीय समय मे उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण होने पर मर गया, इस प्रकार क्रम से उसने उत्सर्पिणी काल के प्रत्येक समय मे जन्म लिया और फिर क्रम से अवसर्पिणी काल पूरा किया। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी-काल के बीस कोडा-कोडी सागर के जितने समय हे उनमे क्रमश उत्पन्न हुआ और क्रमश मरण भी किया। यह सब मिलकर एक काल-परिवर्तन है। तात्पर्य यह है कि काल-परिवर्तन रूप ससार मे भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सपूर्ण समयो में अनेक वार जन्म धारण करता है और मरता हे। काल-पूजा-तीर्थकरो के पचकल्याणक की तिथिया तथा अन्य दसलक्षण आदि पर्व के दिनो को निमित्त बनाकर जो पूजा की जाती हे वह काल-पूजा है। काल-लब्धि-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मे काल लब्धि आदि बहिरग कारण और करण लब्धि रूप अतरग कारण होना अनिवार्य है। तीन प्रकार की काल लब्धि मानी गयी है-प्रत्येक भव्यात्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता, यह ससार-स्थिति सवधी प्रथम काल-लब्धि है। उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता बल्कि जब वधने 72 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश