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वाले कर्मो की स्थिति अत कोडकोडी सागर होती है और विशुद्ध परिणामो के फलस्वरूप सत्ता मे स्थित कर्मों की स्थिति सख्यात हजार सागर कम अत कोडाकोडी सागर रह जाती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है, यह कर्म-स्थिति सबधी द्वितीय काललब्धि है। जो जीव भव्य है, सज्ञी पचेन्द्रिय, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य है, यह भव सवधी तीसरी काल-लब्धि है ।
काल - सामायिक - ग्रीष्म आदि किसी भी ऋतु के आने पर उसमे राग-द्वेष नहीं करना समता भाव रखना काल - सामायिक है ।
काल - स्तव - तीर्थंकरो के गर्भ, जन्म आदि पच-कल्याणको की शुभ क्रियाओ से जो महत्ता को प्राप्त हो चुका है ऐसे काल का वर्णन करना काल - स्तव है ।
कालाचार - स्वाध्याय के योग्य काल मे ही शास्त्र का पठन-पाठन आदि करना काला चार या काल-शुद्धि है ।
कालोदधि - मध्यलोक का द्वितीय समुद्र । यह कृष्णवर्ण का है और धातकीखण्ड द्वीप को सब ओर से घेरे हुए है। इसमे चौबीस द्वीप अभ्यन्तर सीमा मे और चौवीस वाह्य सीमा मे है । इन सभी द्वीपो मे हाथी, घोडा, ऊट आदि के समान आकृति वाले कुभोगभूमिज मनुष्य रहते है ।
कीलक- सहनन - जिस कर्म के उदय से शरीर मे हड्डियों की संधिया कील आदि के विना मात्र परस्पर जुडी रहती हे वह कीलक-सहनन नामकर्म कहलाता है ।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 73