Book Title: Hindi ke Mahakavyo me chitrit Bhagavana Mahavira
Author(s): Sushma Gunvant Rote
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 50
________________ साथ सन् 1965 में तीर्थंकर भगवान महावीर महाकाव्य का द्वितीय संस्करण 'श्री अखिल विश्व जैन मिशन अलीगंज से प्रकाशित हुआ । प्रस्तुत महाकाव्य में कुल 'आठ' सर्ग हैं, जिनका नामकरण क्रमशः पूर्वाभास, जन्म- महोत्सव, शिशुचय, किशोरवय तरुणाई - विराग, अभिनिष्क्रमण - तप तथा निर्वाण एवं वन्दना रूप में किया गया है। सर्ग शीर्षकों से ही तदन्तर्गत निहित कथ्य का आभास मिलता है। क्योंकि कवि ने लोकरंजक भगवान महावीर के पावनचरित्र का सरल, सरस भाषा में मनोग्राही चित्रण किया है। विवेच्य महाकाव्य में छन्द संख्याबद्ध नहीं हैं । महाकाव्य के परम्परागत लक्षण का अनुकरण करते हुए कवि ने प्रत्येक सर्ग के अन्त में छन्द-परिवर्तन क्रम का निर्वाह किया है। काव्य में आद्योपान्त गेवता और लयात्मकता का भी ध्यान रखा गया है । 'तीर्थंकर भगवान महावीर' में महावीर - चरित्र वर्द्धमान के सम्पूर्ण चरित्र को वीरेन्द्रप्रसाद जैन ने अपने 'तीर्थंकर भगवान महावीर' नामक महाकाव्य में आठ सर्गों में प्रस्तुत किया है। भगवान महावीर के ऐतिहासिक चरित्र को पौराणिक शैली में छन्दोबद्ध करके कवि ने उसे महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रथम सर्ग - पूर्वाभास पूर्वाभास में कवि ने भगवान महावीर के जन्म के पूर्व वैशाली नगर में जो उत्साहपूर्ण वातावरण था, उसका काव्यमय शैली में चित्रण किया है। प्रकृति चित्रण के साथ, वैशाली नगरी की सामाजिक, सांस्कृतिक गरिमा का भी सरस चित्रण है। रानी त्रिशला के सोलह सपनों का चित्रण तथा उसके फलों का सविस्तार वर्णन किया गया है । पूर्वाभास के अन्त में कवि कहता है "यह धन्य भाग्य जो धरती पर आएँगे। भावी कुमार निज जो दुःख दूर करेंगे ।। ऐसा ही तो स्वप्नार्थों से भासा है I यह ही तो अपनी चिर सचित आशा है।” (तीर्थंकर भगवान महावीर, पृ. 30) द्वितीय सर्ग - जन्मोत्सव भगवान महावीर का जन्मोत्सव सिर्फ मूतल पर ही नहीं, देवलोक में भी मनाया गया। भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिष्कवासी, कल्पवासी, वैमानिक देव सभी भूतल पर जन्मोत्सव मनाने के लिए मानवीय रूप धारण करके अवतरित हुए। शिशु मुख देखने के लिए इन्द्र ने अपने सहस्र नेत्र बनाये | 56 :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित भगवान महावीर

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