Book Title: Hindi ke Mahakavyo me chitrit Bhagavana Mahavira
Author(s): Sushma Gunvant Rote
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 107
________________ जीवनभर मिथ्या मागं का प्रचार करता रहा, तथापि घोर तप के प्रभाव से मरकर वह पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ। तीर्थंकर कल में और बाह्यतः जैन दीक्षा लेकर भी मरीचे ने सम्यकुल्य ग्रहण नहीं किया था, आत्मज्ञान नहीं प्राप्त किया घा, और मिथ्यात्व सहित कुतप किया था। परिणामतः वह पांचवें स्वर्ग में देव हुआ। मिथ्यात्व सहित होने के कारण स्वर्ग में उसके परिणाम कुटिल थे। अतः असंख्य वर्षों तक स्वर्गीय सुख भोगने के बाद भी उसे आत्मशान्ति का अनुभव प्राप्त नहीं हुआ। और अन्त में वह जीव स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य गति में एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ। ब्राह्मण कुल में जन्म होने पर पूर्व के मिथ्या संस्कारवश इस भव में भी वह मिथ्यामार्ग का प्रचार करता रहा। मिथ्यातप से क्लेशपूर्वक मरकर वह जीव प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। अपने हित-अहित के विवेक से रहित वह देव स्वर्ग में भी सुखी नहीं था। दो सागर तक त्वर्गीय भोगों को लालसा सहित भोगकर उसने स्वर्ग से मृत्यु लोक में जन्म धारण किया। सातवें भव में पुष्यमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ और परिव्राजक बनकर उसी मिथ्यामत का प्रचार करता रहा। दीर्घकाल तक मिथ्यात्व सहित कुतप का क्लेश सहन करके वह मरा और दूसरे ईशान स्वर्ग में देव हुआ । धर्म रहित, हीन, पुण्य क्षोण होने पर स्वर्ग से च्युत होकर उसने मनुष्यलोक में जन्म धारण किया। नौवें भव में ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर अग्निसह नाम का ब्राह्मण हुआ और परिव्राजक बनकर उसी कपिलमत का प्रचार किया। दीर्घकाल तक कुमार्ग का प्रवर्तन करके अन्त में मरकर वह चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में सनतकुमार देव हुआ। असंख्य वर्षों तक स्वर्गीय सुखों का उपभोग कर वह मनुष्य लोक में अवतरित हुआ । ग्यारहवें भव में वह पुनः इसी भूतल पर जन्म लेकर अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ और उन तपस्वी हुआ। कपिल मत का प्रचार किया । जीवन के अन्त में मरा और बारहवें भव में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ। वहीं पुण्यक्षय होने पर भूतल पर मनुष्य लोक में नरभव धारण किया। तेरहवें भव में भारद्वाज नामक ब्राह्मण हुआ और पुनः गतजन्म की भाँतेि संन्यासी होकर कुतप में जीवन व्यतीत किया। कपिल मत का प्रचार करता हुआ मरकर चौदहवें भव में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ 1 इस प्रकार मरीचि का जीव लगातार विगत पाँच मनुष्य भवों में अपने पूर्व दृढ़ संस्कारों से प्रेरित होकर उत्तरोत्तर मिथ्यात्व का प्रचार करता हुआ सभी पापकर्मों का बन्ध करता रहा, जिसके परिणामस्वरूप चौदहवें भव में स्वर्ग से च्युत होकर कई नीच त्रस पर्यायों में भटका । अन्त में स्थावर एकेन्द्रिय पर्याय में गया । इस प्रकार असंख्य बार भव-भ्रमण करके उसने कल्पनातीत दुःख सहन किये। दीर्घकाल में कुयोनियों से निकलकर पुनः मनुष्य हुआ। निगोद दशा को सदा के लिए छोड़ दिया। कर्म-भार के हलके होने पर मरीचि का जीव गणनीय पन्द्रहवें भव में 'स्थविर' नामक ब्राह्मण हुआ। इस भव में भी तपस्वी बनकर और भगवान महावीर का चरित्र-चित्रण :: 113

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