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निर्वाण आदि समस्त अवस्थाओं का चित्रण पोराणिक शैली में प्रस्तुत कर लोकरंजक एवं लोककल्याणकारी के रूप में उनके व्यक्तित्व को वाणेत किया गया है।
तात्पर्य यह है कि विश्व का रंगमंच विचित्रताओं और विविधताओं का अपूर्व संगमस्थल है। हर एक जीव अनादि काल से असंख्य भवों में भटकता रहा है। उन जीचों में से कोई ऐने तीच रहते हैं जो अपनी आत्मा को स्वावलम्बन के द्वारा समुन्नत वनाकर तिद्ध भगवान की पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने में सफल होते हैं। ऐसे ही प्रातःस्मरणीय एवं बन्दनीय पुण्यात्माओं में भगवान महाधीर हैं। हिन्दी के कवियों ने निष्कर्ष के रूप में प्रातपादन किया है कि आध्यात्मिक विकास की पराकाष्टा पर पहुँचना किसी एक हो भव की साधना का परिणाम नहीं, बल्कि उसके लिए लगातार अनेक भवों में साधना करनी पड़ती है। अनेक जन्मों के सत् पुरुषार्थ से आत्मशक्ति क्रमशः विकसित होती हुई भगवत् रूप को प्राप्त करती है। जैन मान्यता में तीर्थकर भगवान होने का मूलाधार सम्यक्त्वपूर्वक षोडश भावनाओं की आराधना माना गया है। पूर्वभव में श्रमण साधना की कठोर तपश्चर्यापूर्वक षोडशभावनाओं के चिन्तन के परिणामस्वरूप भगवान महावीर को तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ था, ऐसो दृढ़ मान्यता जैन परम्परा में दिखाई देती है। हिन्दी के तीन महाकाव्यों में महावीर के पूर्वभवों का वृत्तान्त, चेतना प्रवाह शैली में करके उनके इस जन्म के जन्मजात वैराग्य मूलक मनोवृत्ति के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
समस्त आलोच्य महाकाव्यों के कवियों ने भगवान महावीर के समग्न चरित्र-उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, तप, केवलज्ञान, उपदेश तथा निर्वाण आदि अवस्थाओं को पंचकल्याणक महोत्सवों की पौराणिक घटनाओं के वर्णनों द्वारा चित्रित किया है। समस्त कवियों ने महावीर की आत्मा को उनके इस मनुष्यभव में तीर्थंकर भगवान के रूप में माना है। जैन आगम के अनुसार पंचकल्याणक महोत्सव केवल तीर्थंकरों के स्वर्ग से आगत देव, इन्द्रादि द्वारा विशेष रूप से मनाये जाते हैं। और यह मान्यता वर्तमान काल में भी जिनमन्दिरों में तीर्थंकरों की तदाकार मूर्तियों को प्रतिष्ठा महोत्सवों में अविच्छिन्न रूप से प्रचलित रही है। पंचकल्याणक प्रातेप्टा-महोत्सव उसका ही अनुकरण है। इस महोत्सव में अहेतू केवली तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कंवलज्ञान तथा निर्वाण सम्बन्धी क्रिया-प्रतिक्रियाओं के माध्यम से नर से नारायण बनने की प्रक्रिया का वैज्ञानिक विश्लेषण होता हैं।
अन्तरंग चित्रण
बहिरंग चित्रण पात्र का बाहरी रूप हमारे सामने मूर्त करता है। यह रूप भ्रामक हो सकता है। अतः पान का अन्तरंग चित्रण ही महत्त्वपूर्ण होता है। पात्र का बाहरी रूप हम देख सकते हैं, पगर उसका अन्तरंग रूप नहीं देख सकते। देह, आकृति, वेशभूषा रूप व्यक्त होते हैं, लेकिन मन अव्यक्त होता है। कुछ क्रियाओं द्वारा यह मन
भगवान पहावीर का चरित्र-चित्रण :: 119