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मदमस्त हाथी, श्मशान में रुद्रों द्वारा उपसर्ग आदि सभी दृष्टान्त उनकी अलौकिकता को चित्रित करने के लिए आयोजित हैं। भगवान महावीर को महाकाव्य के नायक के रूप में प्रस्तुत करते हुए महाकाव्य के लक्षणों के अनुसार महान नायक के जितने सर्वोत्तम आदर्श हैं उन सभी आदशों की स्थापना करके उन्हें विविध घटनाओं द्वारा कलात्मक ढंग से चित्रित किया गया है।
निष्कर्ष
ऐतिहासिक चरित्र के आकलन के लिए उनके जीवन की बाह्य घटनाओं के साध-साथ उनकी अन्तरंग मानसिकता का अन्तर्दर्शन अनिवार्य है। भगवान महावीर के विचारों को समझे बिना उनके चरित्र का अन्तरंग चित्रण सफलता से हो नहीं सकेगा। विचार और व्यवहार चरित्र के अन्तरंग और बहिरंग पक्ष हैं। भौतिक जीवन के उतार-चढ़ाव की अपेक्षा उनकी अन्तःसाधना में, आत्मान्वेषी प्रज्ञा की ऊर्ध्वगामी गति में, अन्तर्यात्रा में उनके अन्तरंग का सूक्ष्म चरित्र अधिक स्पष्ट और प्रभविष्णु है। अतः भगवान महावीर के चरित्र का अन्तरंग चित्रण निम्न प्रणालियों के माध्यम से करने का प्रयास किया है-(1) स्वप्नविश्लेषण, (2) अन्तःप्रेरणाओं का अनुस्मरण, (3) विचारदर्शन।
माता त्रिशला के स्वप्नों का अन्वयार्थ स्पष्ट करके इस तथ्य का विवेचन किया है कि भगवान महावीर के चरित्र की कतिपय अन्तरंग विशेषताओं का ज्ञान हमें प्राप्त होता है। गर्भस्थ जीव की अलौकिकता का, उसके दिव्यशक्ति सम्पन्न होने का, उनके प्रखर तेज सौन्दर्य का, उनकी लोक कल्याणकारिता का तथा उनका केवली अर्हत्सिद्ध होने के पूर्वसंकेत भी मिलते हैं। प्रभु बर्द्धमान की श्रमणायस्था में आये हुए दस स्वप्नों का सूचक अर्थ भी शीघ्र ही उनके वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी, लोककल्याणकारी व्यक्तित्व के रूप को स्पष्ट करता है।
__ अन्तःप्रेरणाओं के अनुस्मरण में जैन साधना में प्रचलित बारह अनुप्रेक्षाओं के विवेचन के द्वारा भगवान महावीर को वैराग्यमूलक मनोभूमिका को विशद किया है।
अपने पूर्वसंचित पुण्यातिशयों के कारण ये जन्मजात योगी रहे । उनकी वैराग्य भावना किस प्रकार दृढ़तर, दृढ़तम होती रही, परिणामस्वरूप वे समस्त राजवैभव का त्याग करके ब्रह्मचयपूर्वक मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं। यह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन गृहस्थ और श्रमण के बीच का सेतु है। निष्कर्ष के रूप में यह बोध होता है कि प्रत्येक आत्मा का एकाकीपन शरीर की अनित्यता, कर्मबन्ध और भवचक की अनन्त यातनाओं के बोध के बिना बारह अनुप्रेक्षाओं का, भगवान महावीर की अन्तःप्रेरणाओं का वह मम नहीं समझ सकता है।
आत्मस्वरूप के दस लक्षणों का अनुचिन्तन ही साधक को साधना के पथ पर स्थिर रखता है। वस्तु का स्वभाव ही धर्म हैं। आत्मारूपी वस्तु का मूलस्वभाव क्षमा,
140 :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित 'भगवान महावीर