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भयों की संख्या हमें प्राप्त होती है। मनुष्य जन्मों की गणना प्रमुखतः की जाती है।
पंचकल्याणक
'भगवान महावीर के चरित्र का चित्रण आलोच्य महाकाव्यों के कवियों ने पंचकल्याणक महोत्सत्रों की पौराणिक पद्धति पर वर्णन करते हुए किया है। यह संसार पंच प्रकार के अकल्याणों, संकटों से व्याप्त है। इसे पंचपरावर्तन (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप) भी कहते हैं। पंचकल्याणक सिर्फ केवली तीर्थंकर भगवान के चरित्र में महोत्सव के रूप में चित्रित होते हैं। भगवान महावीर तीर्थकर हैं। अतः उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण के प्रसंग को स्वर्ग के इन्द्र देवादि देव भगवान की जन्मभूमि में आकर नागरिकों के साथ उत्सव के रूप में मनाते हैं। विश्वास है कि इस महोत्सव में सम्मिलित होने से पंच प्रकार के संकट नष्ट हो जाते हैं।
गर्भकल्याणक-तीर्थंकर भगवान महावीर जब माता त्रिशला के गर्भ में स्वर्ग से अवतरित होते हैं, तव श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार चौदह स्वप्न और दिगम्बर परम्परा के अनुसार सोलह स्वप्न माता देखती है। देवता और मनुष्य मिलकर उनके गर्भावतरण का महोत्सव मनाते हैं। उस क्रिया को गर्भकल्याणक कहा जाता है। इस सन्दर्भ में कवि अनूप ने लिखा है
"जिन्हें लखा जागृति में न था कभी विलोक ले वे सुखस्वप्न सुप्ति में प्रसन्न है पुत्र त्वदीय गर्भ में
स-हर्ष देता नव प्रेरणा तुझे ।" (वर्द्धमान, पृ. 107) जन्मकल्याणक-जैन मान्यतानुसार जब तीर्थंकर का जन्म होता है, तब स्वर्ग के देव और इन्द्र पृथ्वी पर आकर तीर्थंकर का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं और मेरु पर्वत पर ले जाकर वहाँ उनका जन्माभिषेक करते हैं।
दीक्षाकल्याणक-तीर्थंकर भगवान महावीर के दीक्षाकाल के उपस्थित होने के पूर्व लोकान्तिक देव उनसे प्रव्रज्या लेने की प्रार्थना करते हैं। वे एक वर्ष तक करोड़ों स्वर्णमुद्राओं का दान करते हैं। दीक्षा-तिथि के दिन देवेन्द्र अपने देवमण्डल के साथ आकर उनका अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाते हैं। वे विशेष पालकी में आरूढ़ होकर वनखण्ड की ओर जाते हैं जहाँ अपने वस्त्राभूषण का त्याग करके पंचमुष्टि लोच करते हैं। तीर्थंकर स्वयं ही दीक्षित होते हैं, किती गुरु के पास दीक्षा नहीं लेते। इस तरह इस प्रसंग को महोत्सवपूर्वक मनाया जाता है। अतः यह दीक्षाकल्याणक महोत्सव कहा जाता है।
केवलज्ञानकल्याणक-तीर्थंकर भगवान महावीर जब अपनी साधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, उस समय भी स्वर्ग ते इन्द्र और देवमण्डल आकर कैवल्य
भगवान महावीर का चरित्र-चित्रण :: 117