Book Title: Hindi ke Mahakavyo me chitrit Bhagavana Mahavira
Author(s): Sushma Gunvant Rote
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 110
________________ दिव्यता का यथाधं वोध हमें हो जाता है। डॉ. आ. ने. उपाध्येजी पूर्वभव वृत्तान्त का महत्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं.... भगवान महावीर के पूर्वभववृत्तों का महाच चार दृष्टियों से है(1) जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर वृषभदेव से अन्तिम तीर्थंकर महावीर का सम्बन्ध स्थापित होता है। (2) पूर्वभवों के अध्ययन से कर्म सिद्धान्त के निष्कर्ष का यह बोध होता है कि जीव अपनी बुराई-भलाई के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है और अपने कर्मों के भले या बुरे फल स्वयं उसी को भुगतने पड़ते हैं। (3) पूर्वभवों का अध्ययन आत्मा के विकास का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन (4) नैतिक एवं धार्मिक संस्कारों से भव्य जीवों का परम कल्याण हो सकता आलोच्य महाकाव्यों में दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के ज्ञात 33 भवों का चित्रण मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में भगवान के 27 ही भवों का वर्णन मिलता है। प्रारम्भ के बाईस पूर्व भव कुछ नाम परिवर्तन के साथ वे ही हैं जो कि दिगम्बर परम्परा में बतलाये गये हैं। आलोच्य महाकाव्यों में भगवान महावीर के पूर्व भवों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है। यह पूर्व मयों का वर्णन 'गुणभद्राचार्य' रचित 'उत्तरपुराण' के आधार पर किया गया है और उसी का अनुसरण परवर्ती वीरचरित काव्यकारों ने किया है। पूर्वभवों के इस स्मरण से यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुँचना किसी एक ही भव की साधना का परिणाम नहीं है, बल्कि उसके लिए लगातार अनेक भवों में साधना करनी पड़ती है। __आलोच्य महाकाव्यों के चरित्रनायक भगवान महावीर हैं। महावीर की यह तीर्थकर भगवान अवस्था तैंतीस पूर्वभवों की साधना के पश्चात् विकसित हुई है। कवियों ने चरित्रनायक के पूर्वमवों का वर्णन इतना सरस किया है कि महावीर की आत्मा के रूप का, वैभव का क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होने लगता है। वैसे तो तीर्थंकर एक जन्म के पुरुषार्थ की प्रक्रिया नहीं है। अनेक जन्मों के सत्पुरुषार्थ से आत्मशक्ति क्रमशः अनावृत होते-होते तीर्थकर स्वरूप को प्राप्त करती है। तीर्थकर होने का पुरुषार्थ कब से प्रारम्भ हुआ? इसका उत्तर उन भवों की गणना में प्रायः मिलता है। तीर्थकर बनने के बाद गणधरों, देवों या इन्द्रों के द्वारा इसके रहस्य के पूछने पर तीर्थंकर स्वयं उत्तर देते हैं। अतः जैन साहित्य में तीर्थंकरों के पूर्व भवों का वर्णन प्राप्त होता है। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन की उपलब्धि महत्त्वपूर्ण मानी गयी है, क्योंकि इसकी प्राप्ति से जीव निश्चित रूप में मोक्ष जाता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद तीर्थंकर के भव तक कितने जन्म धारण करने पड़ेंगे। इस जिज्ञासा के कारण ही । :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित भगवान महावीर

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