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अनुप्रेक्षा-चिन्तन-युवक वर्द्धमान महावीर राजभवन में अपना यौवन कात बिता रहे थे। पूर्व संस्कारों के कारण उनके चिन्तन में उदात्तता का रूप था। चे आत्मस्वरूप के चिन्तन में निमग्न थे। बाह्य भौतिक इन्द्रियोपभोगों में उनकी अरुचि थी। उनके चिन्तन का केन्द्रीय स्वर था-तत्त्वतः संसार में प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है. और हर आत्मा में परमात्मा की सम्भावना हैं अर्थात प्रत्येक जीव मोक्ष-प्राप्ति का अधिकारी है। अतः उन्होंने जीव, जगत्, कर्म-बन्ध, धर्म, आत्मसाधना तथा मोक्ष पर गहन चिन्तन-पनन किया था। "महाविजेता महावीर ने हमें यह सन्देश दिया है कि परस्पर लड़ो नहीं, लड़ना ही है तो अन्तर के विकारों से लड़ो, अपने अन्तर को झकझोरो, सुख-समृद्धि और शान्ति अपने अन्तर में ही मिलेगी, अन्यत्र नहीं। ऐसी अन्तर्मुखता ही भारतीय जैन संस्कृति की महान् देन है।":
भगवान महावीर की वैचारिक मान्यता के अनुसार संसार की सभी वस्तुओं में नित्यता और अनित्यता, स्थिरता और विनाश दोनों का आवास रहता है, अतः संसार की प्रत्येक वस्तु न सो सर्वथा नित्य ही है, न उसे सर्वथा अनित्य कहा जा सकता है। वास्तव में संसार के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति पुद्गलपरमाणुस्कन्धों के संघात से हुई है। परमाणु पुंज स्कन्ध हैं। पृथ्वी, जल, तेज आदि सभी पदार्थ परमाणुओं के रूप संघात हैं। अपने जीवन में इन परमाणुओं को प्रत्यक्ष क्रियमाण देख प्रत्येक मुमुक्षु जीव को आत्मोद्धार के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
उक्त चिन्तन के परिवेश में जैनदर्शन आत्मवादी दर्शन है। संसार में प्रत्येक जीव पुद्गल की कर्म-वर्गणाओं से लिप्त है। कर्म आठ प्रकार के हैं। उन कर्मों की कार्मण वर्गणाओं से जीव को अलिप्त, मुक्त, स्वतन्त्र करना मोक्ष है। समस्त भवों में नरभन मोक्ष-प्राप्ति का सर्वोत्तम माध्यम है। अतः धर्म की आराधना करके संबर और निर्जरा द्वारा प्रत्येक व्यक्ति आत्मा को अष्टकर्मों से मुक्त करने के लिए समस्त लौकिक कर्मों से निवृत्त होता है। क्योंकि लौकिक क्रिया-कर्मों से शुभ-अशुभ भावों का आस्रव आगमन) होता है। पुद्गल कार्मण वर्गणाओं के संघात से वह बन्धन का कारण बन जाता है।
जीवन-दर्शन : भगवान महावीर के जीवन-दर्शन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि आचार एवं विचारों की दृष्टि से भगवान महावीर के विचारों के बीज भगवान वृषभदेव के विचारों में हमें प्राप्त होते हैं। श्रमण विचारधारा प्राक्वैदिक काल से वैदिक विचारधारा के समानान्तर स्तर पर वर्तमान काल तक प्रवाहित होकर आयी है। वैदिक एवं श्रमण साधनाएँ आत्मवादी विचारधारा को लेकर तो चलती हैं, लेकिन जीव, जगत् एवं ईश्वर के स्वरूपविषयक चिन्तन में दोनों में मौलिक अन्तर होने के कारण दोनों विचार-धाराएँ पृथक् रूप में अपना पृथक् अस्तित्व आज तक रखती आयी हैं। वैदिक विचारधारा आत्मवादी ईश्वरवादी है तो श्रमण विचारधारा आत्मवादी अनीश्वरवादी 1. ब्र. हरिलाल जैन : चौबीस लीर्थंकर, पृ. ५
भगवान महावीर का चरित्र-चित्रण :: 127