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उसे श्रावकाचार और श्रमणाचार के रूप में विभाजित किया है। श्रावक (गृहस्थ ) केवलीप्रणीत जिनधर्म पर दृढ़ सम्यक् श्रद्धान रखता है । वह अष्टमूलगुणों को धारण करता है । सप्त व्यसनों से दूर रहता है। अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह आदि पंचअगुव्रतों को धारण कर यथाशक्ति अंशत: उनका पालन करता है। श्रावक आचार संहिता का पालन दैनिक जीवन में सावधानी से करता है। जिन पूजा, अभिषेक, निर्ग्रन्थ गुरु की सेवा, भक्ति, स्वाध्याय, संयम के विकास के लिए पंचेन्द्रियों को अपने वश में रखना फलस्वरूप व्रत, उपवास का पालन यथाशक्ति सामायिक, तप, धर्मध्यान करना तथा सत्पात्र को दान देना आदि दैनिक पट्कार्यों को आचरण में लाने का प्रयत्न श्रावक करता है। धर्मसाधना में चित्त को स्थिर रखने के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है। परिणामस्वरूप वह विरागी होकर ही धर्ममूलक अर्थ और काम पुरुषार्थ का सम्पादन करता है। बारह व्रतों का पालन करते हुए वह क्रमशः ग्यारहवीं प्रतिमा का अधिकारी होता है। जीवन के अन्त में वह सल्लेखनापूर्वक मृत्यु को शान्तिपूर्वक वरण करता है। श्रावक के व्यक्तित्व में आत्मकल्याण के साथ लोकहितकल्याण का भाव भी निहित होता है । वह सदाचार से पुण्यसंचय करके समता, सहिष्णुता, करुणा, अहिंसा, मानवता एवं अपरिग्रही संयमी वृत्ति से आत्मकल्याण के साथ लोककल्याण में दत्तचित्त रहता है ।
भगवान महावीर के जीवन-दर्शन के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि केवली अरिहन्त भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित जिनधर्म एक पुरातन, सार्वकालिक, सार्वभौमिक, त्रिकालाबाधित सत्य से युक्त एक विश्वमानव का धर्म है। यह धर्म आत्मोद्धारक और लोकोद्धारक जीवन-मूल्यों से अनुस्यूत है। आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता उद्घोषित कर जीवन की मूलभूत सत्ता और उसके नित्य अस्तित्व पर दृष्टि सापेक्ष की पद्धति से सर्वांगीण विचार किया गया है। विचार में अनेकान्त, आचार में अहिंसा और वाणी में स्याद्वाद ये तीन सूत्र भगवान महावीर
जीवन-दर्शन की विशिष्टतम उपलब्धि हैं। भगवान महावीर का आत्मागत साम्यवाद, आर्थिक समाजवाद, उदात्त आत्मवाद, आत्मिक जनतन्त्रवाद, मानव प्रज्ञा की ये ही महत्तम उपलब्धियाँ हैं ।
सृष्टि से आत्मतत्त्व की ओर उन्मुख भगवान महावीर के विचार, विराटू से सूक्ष्म की ओर गतिशील हैं, किन्तु श्रावक-श्रमणाचार द्वारा मोक्ष प्राप्ति करना उनका अन्तिम लक्ष्य रहा है। साथ ही मानवता के उद्धार के लिए अनेक पवित्र उदात्त विचार, संकल्प तथा कर्म-विधानों की त्रिवेणी का संगम है। भगवान महावीर के विचारों का प्रमुख सूत्र 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वारित्राणि मोक्षमार्ग' है। इस सूत्र के सम्यक् बोध से 'जन' जैन बनता है। जैन बनकर मनुष्य श्रावक, साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध की अवस्था को प्राप्त कर मुक्त परमात्मा के रूप में ऊर्ध्वगति सिद्धशिला पर अपने को स्थिर रखकर, अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य इन अनन्त
भगवान महावीर का चरित्र चित्रण :: 131