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द्वारा भी महावीर चरित की विविध अवस्याओं का गरिमापूर्ण भाषा-शैली में गौरवगान किया जाता है। आधुनिक कवियों ने भी अपने चरित-कायों में इसी परम्परागत चित्रण पद्धति को अपनाते हुए महावीर के चरित्र का बहिरंग चित्रण किया है।
गर्भरूप-गर्भस्थ प्रभु महावीर चर्मचक्षुओं के अगोचर अवश्य हैं, किन्तु उनके प्रभाव से माता में अपूर्व सौन्दर्य तथा अद्भुतता दिखाई देती है। भगवान के गर्भ-कल्याणक के उत्सव के समय पृथ्वी भी रत्नवर्षा के कारण रत्नगर्भा हो जाती है। तत्त्व-दृष्टि से जीव का गर्भ में आना तथा गर्भ से बाहर जन्म लेने में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जन्म लेने पर चर्म चक्षुओं से प्रभु के दर्शन करने का सौभाग्य सबको प्राप्त होता है। प्रभु का सदभाव माता के उदर के भीतर गर्भकल्याणक में हो जाता है। इसी कारण माता त्रिशला का प्रभाव अद्भुत रूप में दिखाई पड़ता है। माता की बुद्धि विशुद्ध हो जाती है और उसका सौन्दर्य विलक्षण होता है।
शिशुरूप-बर्द्धमान का शिशुरूप सौन्दर्य अलौकिक एवं दिव्यत्व से ओतप्रोत था। सभी कवियों ने उनके शिशुरूप का सुन्दर चित्रण किया है।
किशोर रूप-कुमार वर्द्धमान विविध बाल-लीलाओं के करते हुए शनैः-शनैः बढ़ रहे थे। जब उनकी उम्र आठ वर्ष की हुई तब उन्होंने बिना किसी अन्य प्रेरणा के हो स्वयं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों का आंशिक त्यागकर पाँच अणुव्रतों को धारण किया । स्वर्ग के देव किशोररूप धारण कर किशोरवीर प्रमु के साथ सुखदायी क्रीड़ा करते थे। इसी किशोर अवस्था में अहिमर्द, हाथी नियन्त्रण, मुनि साहचर्य आदि घटनाओं के सन्दर्भ में उनके सन्मति, वीर, अतिवीर, महावीर आदि नाम प्रचलित हुए।
युवा रूप-कुमार वर्द्धमान की युवावस्था में उनके अंग-अंग में यौवन का उभार आ गया। वे बचपन से सुन्दर थे। युवा होने पर वे अधिक सुन्दर दीखने लगे, ठीक वैसे ही जैसे चाँद सहज ही कान्त होता है, शरद् ऋतु में वह और अधिक कमनीय हो जाता है। कुमार की यौवनश्री को पूर्ण विकसित देख माता-पिता ने विवाह की चर्चा की। यौवन सुलभ सुन्दरता का वर्णन मनोहारी ढंग से चित्रित है। यौवन के समय स्वभाव से नर-नारियों में काम-वासना का प्रबल वेग से संचार हो जाता है। कामदेव पर विजय पाना कठिन हो जाता है। लेकिन अदम्य कामवासना का लेशमात्र भी प्रभाव क्षत्रिय युवराज वर्द्धमान के हृदय पर नहीं पड़ा है। कवि धन्यकुमार के शब्दों में
भउस कामदेव की सेना के द्वारा भी हारे 'वीर' नहीं। क्या तृण से क्षोभित हो सकता है क्षीरोदधि का नीर कहीं।" (परमज्योति महाबीर, पृ. 349)
104 :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रेित भगवान महावीर