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सप्तम सर्ग - केवलज्ञान एवं उपदेश
भगवान महावीर ने बारह वर्ष तक मुनिवेश में निदोष ढंग से कठोर तपश्चर्या की और अन्त में ऋजुकूला के तट पर शुक्लध्यान में मग्न रहे। परिणामस्वरूप उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
"द्वादश वर्षों तक अतिघोर तपस्या तपकर।
उपसर्गों को झेल, टेल व्याधाएँ दुस्तर।।" (वही, पृ. 151) स्वर्ग के इन्द्रादि देवों ने विपुलाचल पर्वत पर प्रभु उपदेश के प्रसारण के लिए समवसरण सभा की, अलौकिक ढंग से रचना की। इन्द्र बटु का रूप धारण करके गौतम से शंका पूछने जाते हैं। प्रश्न की उलझन में पड़कर गौतम भगवान महावीर के समवसरण में आते हैं, और तत्काल गौतम को इन्द्र के प्रश्न के उत्तर प्राप्त होते हैं। वे भगवान महावीर के प्रथम गणधर होते हैं। गौतम गणधर के द्वारा शिष्यत्व के स्वीकृत होते ही भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी। और उन्होंने समवसरण में एकंत्र सभी प्राणियों को उपदेश दिया। महावीर-वाणी को बारह अंगों एवं चौदह पूर्वो में गौतम गणधर गूंथते हैं। महावीर के चिन्तन का सार है
"है प्रतिवस्तु अनेक धर्म की, निखिल विश्व में। यों न सत्य के दर्शन होते, एक दृष्टि में। मिटते वाद-विवाद जगत् के स्याद्वाद में। सप्तमंग नय दर्शाती 'सत्' निर्विवाद में॥" (वही, पृ. 160)
अष्टम सर्ग-निर्वाण एवं वन्दना
भगवान महावीर ने केवली दशा-अर्हन्त दशा में सीस साल तक स्थान-स्थान पर विहार करते हुए जन-साधारण को हितोपदेश दिया और आत्मोद्धार के पथ को निर्देशित किया। सामाजिक समता का समर्थन करते हुए, नारी के उद्धार के लिए उद्बोधन किया। अहिंसा, अनेकान्त और स्वादवाद की दृष्टि अपनाकर व्रतों का आचरण करके संयम, त्याग, तप, ध्यान एवं रत्नत्रय की साधना से आत्मकल्याण करने के लिए प्रेरणा दी। ___बहत्तरवें वर्ष के अन्त में भगवान महावीर का निर्वाण पावापुरी में हुआ। इन्द्रों ने वहाँ आकर निर्वाण-महोत्सव मनाया।
निष्कर्ष
__'तीर्थकर भगवान महावीर' काव्य कृति तीर्थकर भगवान महावीर के आदर्श जीवन और बोधप्रद शिक्षाओं की परिचयात्मक छन्दोबद्ध कलाकृति है। आधुनिक हिन्दी कविता में भगवान महावीर के चरित्र पर जो महाकाव्य लिखे गये हैं उनमें कुछ tite :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित भगवान महावीर