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प्रसंगानुकूल आगत जैन पारिभाषिक शब्दों का सरत अर्थ परिशिष्ट 1 में दिया है। उत्ती प्रकार परिशिष्ट ५ ओर में ऐतिहासिक स्थलों और व्यक्तियों का विवरण भी दिया है।
तात्पर्य यह है कि काव्यशास्त्रीय दृष्टि और महत् उद्देश्य इन दोनों दृष्टियों से प्रस्तुत महाकाव्य सफल रहा है। पं. नायूलाल शास्त्री लिखते हैं
"परमज्योति महावीर में महाकाव्य के लक्षण और गुण पाये जाते हैं। अभी तक भगवान महावीर के जीवन सन्दर्भ में जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं उनमें यह अपना अपूर्व और विशिष्ट स्थान रखता है।" (परमज्योति महावीर, प्रकाशकीय वक्तव्य) 'सुधेश' जी के गम्भीर तथा खोजपूर्ण अध्ययन के परिणामस्वरूप ही प्रस्तुत महाकाव्य है।
पहला सर्ग-वैशाली-कुण्डग्राम
निम्नांकित विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है-भारत भव्यता-विदेड़ विभव-कुण्डग्राम गरिमा-सिद्धार्थ शासन-त्रिशला देवी-दाम्पत्य दिव्यता। प्रस्तावना में 'सुधेश जी ने संकेत किया है कि
"उनके हो मन की करुणा-सी, उनकी यह करुण कहानी है। यह मसि से लेख्य नहीं इसको, लिखता कवि-दृग का पानी है।"
(परमज्योति महावीर, पृ. 46) इससे स्पष्ट होता है कि महाकाव्य करुण रस से ओत-प्रोत है। पहले सर्ग में भारत की गरिमा का चित्रण करते हुए विदेह वैभव तथा कुण्डग्राम के सौन्दर्य को चित्रित किया है। सिद्धार्थ शासन की प्रशंसा करते त्रिशला रानी के सौन्दर्य का नखशिख वर्णन प्रस्तुत किया है और दाम्पत्य प्रेम की दिव्यता को विशद किया है।
दूसरा सर्ग-च्यवन प्रसंग
स्वर्ग के देव अपने पुण्य के कारण सतत भोग विलात में मग्न रहते हैं, और धार्मिक विषयों में श्रद्धामय अभिरुचि रखते हैं। देवेन्द्र ने यह अवधिज्ञान से जाना कि अच्युतेन्द्र की आयु समाप्त हुई है और वह भूलोक पर नवा जन्म लेगा। अमरेन्द्र ने कुवेर को आज्ञा दी कि सिद्धार्य के महल पर रत्नवृष्टि करें, कारण अच्युतेन्द्र की आत्मा त्रिशला के गर्भ में आगमन करने वाली है। त्रिशला का गर्भाधान होने के कारण वह निद्रा में अत्यन्त सतेज और मोहक बन पड़ी थीं।
तीसरा सर्ग:-त्रिशलामाता के षोडशस्वप्न
तीसरे सर्ग में निशीथ तम का चित्रण करके त्रिशला माता के सोलह सपनों का वर्णन हैं। ऐरावत, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, मन्दार-कुसुम (दो फूल मालाएँ), दो स्वर्ण
Ge:: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित भगवान महावीर