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का काल जैसा विकराल रूप देखा । निर्भय होकर वर्द्धमान ने कठोर शब्दों में हाधी का ललकारा । वह ललकार सिंह गर्जना-सो प्रतीत हुई। अतः वह लहमकर खड़ा हो गया वर्द्धमान उसके मस्तक पर जा चढ़े और अपनी बज्रमुष्टियों (मुक्कों) के प्रहार से उसे निर्मद कर दिया। तब जनता ने वर्द्धमान की निर्भयता और वीरता की प्रशंसा करके उसे 'वीर' नाम से पुकारा। इत्त तरह बर्द्धमान का नाम 'बीर' रूप में प्रसिद्ध हुआ। पिता सिद्धार्थ वर्द्धमान की निर्भयता को प्रशंसा सुनकर धन्य हुए । नगरवासियों ने 'वीर' के नाम से सम्बोधन किया।
अतिवीर-कवि ने 'वर्द्धमान' के 'अतिवीर' नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए कहा है-नगर में एक मदोन्मत्त हाथी विकराल रूप धारण करके उत्पात मचा रहा था।
"उस दिन से ही अतिवीर' नाम
भी उनके लिए प्रयुक्त हुआ।" (परमज्योति महावीर, पृ. 256) वीर बर्द्धमान की इस दृढ़ता की निर्भयता की प्रशंसा करते हुए नगर जनों ने उसका अतिवीर' नाम से जयजयकार किया।
महावीर-लगभग आठ वर्ष के होने पर बर्द्धमान एक बार अपने साथियों के साथ प्रमद-यन में क्रीड़ा करने गये। वृक्ष को लक्ष्य करके क्रीड़ा (आपली क्रीड़ा) कर रहे थे। जब वे अपने साथियों के साथ खेल रहे थे, तभी इन्द्र द्वारा प्रेरित संगमदेव उनकी परीक्षा लेने आया । वह महाभयंकर सर्प का रूप लेकर उत्त वृक्ष से आकर लिपट गया, जिस पर वर्द्धमान अपने मित्रों के साथ खेल रहे थे। विषधर को देखते ही अन्य साथी तो भयभीत होकर भाग गये, लेकिन वर्द्धमान डरे नहीं। उन्होंने दोनों हाथों से सर्प को पकड़ा। निर्भयतापूर्वक सपं के साथ क्रीज करने लगे । सर्प की पूंछ पकड़कर दूर फेंक दिया। अपनी पीट पर बैठाकर भी संगमदेव रूपी सर्प ने उन्हें इराना चाहा, किन्तु सफल नहीं हुआ। राजकुमार वर्द्धमान की निर्भवता एवं साहस को देखकर संगमदेव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने प्रकट होकर बर्द्धमान तीर्थंकर की स्तुति की,
और उन्हें 'महावीर' की महत्ता से अलंकृत किया। तभी से 'वर्द्धमान' 'महावीर कहलाने लगे।
आलोच्य महाकार्यों में 'अहि-मर्दन' प्रसंग का चित्रण कलात्मक ढंग से किया गया है।
डॉ. टेलबिहारी गुप्त ने तीर्थंकर महावीर' महाकाव्य में पड़ावीर नाम की सार्थकता के प्रसंग का चित्रण चौथे सर्ग में किया है। वर्द्धमान दिगम्बर मुद्रा में तपसाधना करते थे। उज्जयिनी के महाश्मशान में प्रतिमा चोग साधना में मग्न थे। स्थाणुरुद्र ने उनकी धोरता की परीक्षा ली। पिशाचदल सहित उसने विकराल रूप दिखाकर बर्द्धमान को डराने का प्रयत्न किया, लेकिन असफल रहा । अन्त में वर्द्धमान की स्तुति करते हुए कहते हैं
भगवान महाका परिक-विता :: ।