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से चौवन के आगमन से सचेत रहे और सोचते रहे
" सोचते एकान्त में वों वर्द्धमान प्रशान्त मुद्रा । यह जवानी है नशीली, रच रही जो मंदिर तन्द्रा ॥ " (वही, पृ. 97 )
काम-वासना आत्मा का मूल स्वरूप नहीं है। धमनियों का यह नशा है। मनुष्य के विवेक ज्ञान पर ये यौवनसुलभ भाव आवरण डालते हैं, लेकिन यह जवानी शाश्वत नहीं हैं, क्षणभंगुर है। जवानी को उद्देश्य कर भगवान महावीर कहते हैं
"हे जवानी! किन्तु मुझको, तू नहीं भरर्मा सकेगी।
तू न मेरे मर्त्य तन में काम तरु पनपा सकेगी। " ( वही, पृ. 47 ) क्योंकि महावीर को विश्वास है कि उनका शुद्ध ज्ञान सच्चा साथी होने के कारण काम-वासना का उन्मत्त हाथी पास नहीं आ सकेगा। यह संसार क्षणभंगुर है, दुःखमय है, मृत्यु अटल है, और शुद्धात्मा (परमात्मा) के सिवाय शरण में जाने योग्य कोई नहीं हैं। वे अकामी ( वीतरागी) और सर्वज्ञ होने की शक्ति के कारण मुक्ति (मोक्ष) - मार्ग का हितोपदेश करते हैं। इस मुक्ति-मार्ग के पथ पर दृढ भाव से चलने के लिए वे बारह भावनाओं का तथा शुद्धात्म स्वभाव का सूक्ष्म चिन्तन करते हैं।
युवा महावीर की उक्त वैराग्य अवस्था को देखते हुए माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ चिन्तित हो उठते हैं और उसका विवाह करना इष्ट समझते हैं। दृत के द्वारा राजाओं को सन्देश भेजते हैं और अनेक राज्यों से राजकुमारियाँ वहाँ पहुँचती हैं। उनमें से कलिंग देश के राजा की बेटी यशोदा, माता त्रिशला को वधू के रूप में पसन्द आयी। माता-पिता ने महावीर के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। माता -त्रिशला ने महावीर से कहा, किन्तु एकान्त में वे साधु के समान चिन्तन करते रहे। किसी भी प्रकार से वे विवाह के लिए तत्पर नहीं हुए ।
षष्ठ सर्ग - अभिनिष्क्रमण एवं तप
इस सर्ग में कवि ने भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण एवं तप साधना की विवेचना विस्तार के साथ सरस शैली में की है। माता-पिता का आशीर्वाद लेकर प्रभु महाबीर बन में पहुँचे और वहाँ पर मुनि दीक्षा ग्रहण की
“हुए त्यागी त्याग भूषण, वस्त्र वे दिग्देष ।
और लुंचित किये सारे, पंचमुष्टि केशा॥" (वही, पृ. 129 )
मुनिवेश में साधना करते समय प्रभु ने पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति, बारह तप, धर्मध्यान के द्वारा आत्मबल विकसित किया। बारह साल मौन धारण करते हुए वर्द्धमान ने कठोर साधना की ।
आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में वर्णित महावीर चरित्र : 59