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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रहे हैं। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयंभू, पुष्पदन्त आदि अपभ्रंश कवियों के ग्रंथों को भी हमने इस काल में समेटा है। यह इसलिए कि इस काल में लोकभाषा के प्रचलित तत्त्व इन ग्रन्थों में यत्रतत्र उभर आये हैं। इसी काल के द्वितीय भाग में ये तत्त्व आधुनिक हिन्दी के काफी नजदीक आते दिखाई देते हैं। कुछ विद्वानों ने इसे अवहट्ट का रूप कहा है और कुछ ने देशी भाषा का। हम इसे आदिकालीन ही कहना उपयुक्त समझते हैं। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यद्यपि अपभ्रंश और हिन्दी को पृथक्-पृथक् माना जाता है और माना जाना चाहिये। पर चूंकि हिन्दी की संरचना में अपभ्रंश काल में प्रचलित देशी भाषा के तत्त्वों ने विशेष योगदान दिया है जो अपभ्रंश साहित्य में परिलक्षित होता है, इसलिए हमने आदिकाल की सीमा को स्वयंभू से प्रारम्भ करने का सुझाव दिया है। वैसे हिन्दी का यह आदिकाल सही रूप में मुनि शालिभद्रसूरि से प्रारम्भ होता है जिन्होंने भरतेश्वर बाहुबली रास (वि. सं. १२४१ सन् ११८४) लिखा है। यह रचना इस संदर्भ में असंदिग्ध रूप से प्रथम मानी जा सकती है। श्री अगरचन्द नाहटा ने वज्रसेन सूरि विरचित भरतेश्वर बाहुबली घोर को प्रथम रचना मानने का आग्रह किया है । पर वह अत्यंत संक्षिप्त होने के कारण प्रातिनिधिक रचना नहीं कही जा सकती। डॉ. दिनेश ने सरहपा को हिन्दी का प्रथमतम कवि प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया है पर अपने पक्ष में प्रस्तुत तर्क तो फिर स्वयंभू को प्रथमतम कवि मानने को बाध्य कर देते हैं। यहां हमने इन दोनों मतों को समाहितकर हिन्दी के आदिकाल को दो भागों में विभाजित किया है प्रथम अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारम्भिक हिन्दी काल । प्रथम काल भाग का प्रारम्भ स्वयंभू से होता है और दूसरे को शालिभद्रसूरि से प्रारम्भ किया है।