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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना है। फलतः साधक विरह-विधुर हो तड़प उठता है। यह आध्यात्मिक विरह एक ओर तो साधक को सत्य की खोज अर्थात् परमपद की प्राप्ति की ओर प्रेरित करता है और दूसरी ओर उसे साधना में संलग्न रखता है। साधक की अंतरात्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है। तब वह प्रेम और श्रद्धा की अतिरेकता के कारण उससे अपना घनिष्ठ संबंध स्थापित करने लगती है। यही कारण है कि कभी साधक उसे पति के रूप में देखता है और कभी पत्नी के रूप में। क्योंकि प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्यरति में देखी जाती है। अतः रहस्यभावना की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और प्रिया के आश्रय में होती रही है।
आध्यात्मिक साधना करने वाले जैन एवं जैनेतर सन्तों एवं कवियों ने इसी दाम्पत्यमूलक रतिभाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। आत्मा परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण किया गया है। श्री पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव का यह कथन इस सन्दर्भ में उपयुक्त है कि लोक में आनंदशक्ति का सबसे अधिक स्फुरण दाम्पत्य संयोग में होता है, जिसमें दो की पृथक् सत्ता कुछ समय के लिए एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती है। आनंद स्वरूप विश्वसत्ता के साक्षात्कार का आनंद इसी कारण अनायास लौकिक दाम्पत्य प्रेम के रूपकों में प्रकट हो जाता है। अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वैध भाव ही समाप्त हो जाता है। मध्यकालीन कवियों ने आध्यात्मिक प्रेम के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विवाहों का चित्रण किया है। प्रायः इन्हें विवाहला, विवाह, विवाहलउ और विवाहला आदि नामों से जाना जा सकता है। विवाह भी दो प्रकार के मिलते हैं। रहस्यसाधकों की रहस्यभावना से जिन विवाहों का सम्बन्ध है उनमें जिन प्रभसूरि का अंतरंग विवाह'