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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना विचार करते रहे हैं। सूफी कवि जायसी के आत्मतत्त्व सम्बन्धी विचार वेदान्त, योग, सूफी, इस्लाम और जैनधर्म के प्रभावित रहे हैं। उसमें इन सभी सिद्धान्तों को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने की भावना निहित थी। जायसी का ब्रह्मनिरूपण सूफियों से अधिक प्रभावित है। सूफीमत में ब्रह्म की स्थिति हृदय में मानी गयी है और जगत् उसकी प्रतिच्छाया के रूप में दिखाई देता है। कवि का यह कथन दृष्टव्य है जहां वह कहता है - काया उदधि सदृश है। उसी में परमात्मा रूपी प्रियतम प्रतिष्ठित है। उसी को शाश्वत माना है। आत्मा का साक्षात्कार अन्तर्मुखी साधना का फल है। यह आत्मा पिण्डस्थ मानी गई है। योग के अनुसार पिण्डस्थ आत्मा दो प्रकार की है - प्राप्तात्मा और प्राप्तव्यात्मा। सूफियों ने भी आत्मा के दो रूप स्वीकार किये हैं - नफस (संसारी) और रूह (विवेकी)। रूह आत्मा शरीर के पूर्व विद्यमान रहती है। परमात्मा ही उसे मनुष्य शरीर में भेजता है। इस उच्चतर आत्मा के भी तीन पक्ष हैं - कल्ब (दिल) रूह (जान) तथा सिरै अन्तःकरण। वहां सिरै ही अन्तरतम रूप है। इसी में पहुंचकर सूफी साधक आत्मा के दर्शन करते हैं। इस आत्मद्वयवाद को कवि ने सूर्यचन्द्र के प्रतीकों से अनेक स्थानों पर व्यंजित किया है। आत्मद्वय में एक शुद्धात्मा है और दूसरी निम्नात्मा। माया के नष्ट हो जाने पर दोनों का द्वैतभाव नष्ट हो जाता है। वेदान्त में माया (नफस) का हनन ज्ञान से होता है पर सुफीमत में ईश्वर प्रेम से साधक उससे मुक्त होता है। जायसी ने आत्मा की ज्ञानरूपता, स्व-पर प्रकाशकरूपता, नित्यशुद्ध, मुक्तरूपता, चैतन्य रूपता, परम प्रेमास्पद रूपता, आनन्द रूपता, सद्पता और सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपता स्वीकार की है। जायसी के इस आत्मा के सिद्धान्त पर वेदान्त का प्रभाव अधिक बताया जाता है। पर मुझे जैनदर्शन का भी प्रभाव दिखाई देता है।