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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 429 साधना का मार्ग प्रशस्त बनाने के सन्दर्भ में अभिव्यंजित किया है। अन्तर मात्र चिनगारी प्रज्वलित करने की मात्रा का है। मीरा प्रेम माधुर्यभाव का है जिसमें भगवान कृष्ण की उपासना प्रियतम के रूप में की है। इससे अधिक सुन्दर-सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना हो भी नहीं सकती। विरह और मिलन की जो अनुभूति और अभिव्यक्ति इस माधुर्यभाव में खिली है वह सख्य और दास्यभाव में कहां ! इसलिए मीरा के समान ही जैन कवियों ने दाम्यत्यमूलक भाव को ही अपनाया है। मीरा प्रियतम के प्रेमरस में भीगी चुनरिया को ओढ़कर साज श्रृंगार करके प्रियतम को ढूढ़ने जाती है उसके विरह में तड़पती है। इस सन्दर्भ में बारहमासे का चित्रण भी किया है सारी सृष्टि मिलन की उत्कण्ठा में साज-सजा रही है परन्तु मीरा को प्रियतम का वियोग खल रहा है। आखिर प्रियतम से मिलन होता है। वह तो उसके हृदय में ही वसा हुआ है । वह क्यों यहां-वहां भटके। यह दृढ़ विश्वास हो जाता है। उस आगम देश का भी मीरा ने मोहक वर्णन किया है।
जैन साधकों की आत्मा भी मीरा के समान अपने प्रियतम के विरह में तड़पती है। भूधरदास की राजुल रूप आत्मा अपने प्रियतम नेमीश्वर के विरह में मीरा के समान ही तड़पती है। इसी सन्दर्भ में मीरा के समान बारहमासों की भी सर्जना हुई है। प्रियतम से मिलन होता है और उस आनन्दोपलब्धि की व्यंजना मीरा से कहीं अधिक सरस बन पड़ी है।" सूर और तुलसी यद्यपि मूलतः रहस्यवादी कवि नहीं हैं फिर भी उनके कुछ पदों में रहस्यभावनात्मक अनुभूति झलकती है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं।
इस प्रकार सूफी, निर्गुण और सगुण शाखाओं की रहस्यभावना