Book Title: Hindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Author(s): Pushplata Jain
Publisher: Sanmati Prachya Shodh Samsthan

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Page 413
________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन अगनेचरी, ३०१८ १३०२ 'आप पिछानै आपै आप' जैसे उद्धरणों के माध्यम से अनुभव की आवश्यकता को स्पष्ट किया है। उन्होंने अद्वैतवाद का सहारा लेकर तत्त्व का अनुभव किया। इस अनुभव में तर्क का कोई उपयोग नहीं। तर्क से अद्वैतवाद की स्थापना भी नहीं होती बल्कि अनेकत्व का सृजन होता है इसलिए कबीर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में तर्क को प्रतिष्ठित करने वालों के लिए 'मोही मन वाला' कहा है। और 'खुले नैन पहिचानौ हंसि - हंसि सुन्दर रूप निहारौ " की प्रेरणा दी है। दादू ने भी इसी प्रकार से 'सो हम देख्या नैन भरि, सुन्दर सहज सरूप' के रूप में अनुभव किया।" यह आत्मानुभव वृत्तियों के अन्तर्मुखी होने पर ही हो पाता है। इससे एक अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है - ३०३ १३०४. ३०६ ३०७ आपहि आप विचारिये तव केता होय आनन्द रे । 397 बनारसीदास ने कबीर और अन्य सन्तों के समान आत्मानुभव को शान्ति और आनन्द का कारण बताया है।" अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर के भीतर से दमकती हुई सन्तापदायक भावों को चीरकर प्रगट होती है और सहज शाश्वत आनन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है। ३०९ कबीर आदि सन्तों ने आत्मानुभव से मोहादि दूर करने की बात उतनी अधिक स्पष्ट नहीं की जितनी हिन्दी जैन कवियों ने की। जैन कवि रूपचन्द का तो विश्वास है कि आत्मानुभव से सारा मोह रूप सघन अन्धेरा नष्ट हो जाता है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल जाता है, सत्तारूप अनुपम अद्भुत ज्ञेयाकर विकसित हो जाता है, आनन्द कन्द अमन्द अमूर्त आत्मा में मन बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख वासे-से प्रतीत होने लगते

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