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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना आधुनिक विज्ञान के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला है कि 'हरिलीला आत्मशक्ति की विभिन्न क्रीड़ाओं का चित्रण हैं। राधा, कृष्ण, गोपी आदि सब अन्तःशक्तियों के प्रतीक है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अध्ययन का निष्कर्ष है कि 'रहस्यवादी कविता का केन्द्रबिन्दु वह वस्तु है जिसे भक्ति साहित्य में 'लीला' कहते हैं। यद्यपि रहस्यवादी भक्तों की भांति पद-पद पर भगवान का नाम लेकर भावविह्वल नहीं हो पाता किन्तु वह मूलतः है भक्त ही। ये भगवान अगम अगोचर तो हैं ही, वाणी और मन के भी अतीत है, फिर भी रहस्यवादी कवि उनको प्रतिदिन प्रतिक्षण देखता रहता है - संसार में जो कुछ घट रहा है और घटना सम्भव है, वह सब उस प्रेममय की लीला है - भगवान के साथ यह निरन्तर चलने वाली प्रेम केलि ही रहस्यवादी कविता का केन्द्र बिन्दु है। अतः मीरा की प्रेम-भावना में लीला' के इस निर्गुणत्व-निराकारत्व तक और कदाचित् उससे परे भी प्रसारित सरस रूप का स्फुटन होना अस्वाभाविक नहीं है। आध्यात्मिक सत्ता में विश्वास करने वाले की दृष्टि से यह यथार्थ है, सत्य है। पश्चिम के विद्वानों के अनुकरण पर इसे 'मिस्टिसिज्म' या रहस्यवाद कहना अनुचित है। यह केवल रहस (आनन्दमयी लीला) है और मीरा की भक्ति-भावना में इसी 'रहस' का स्वर है।७१
सूर और तुलसी, दोनों सगुणोपासक हैं पर अन्तर यह है कि सूर की भक्ति सख्यभाव की है और तुलसी की भक्ति दास्यभाव की है। इसी तरह मीरा की भक्ति भी सूर और तुलसी, दोनों से पृथक् हैं। मीरा ने कान्ताभाव को अपनाया है। इन सभी कवियों की अपेक्षा रहस्यभावना की जो व्यापकता और अनूभुति परकता जायसी में है वह अन्यत्र नहीं मिलती। कबीर को निर्गुण अथवा सगुण के घेरे में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने यद्यपि निर्गुणोपासना अधिक की है पर