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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना सूर की अन्योक्तियों में कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनूभुति के दर्शन होते हैं -
चकई री चल चरन सरोवर, जहां न मिलन विछोह।
एक अन्यत्र स्थान पर भी सूर ने सूरसागर की भूमिका में अपने इष्टदेव के साकार होते हुए उसका निराकार ब्रह्म जैसा वर्णन किया है -
अविगत गति कछु कहत न आवै। ज्यौं गूंगे मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै। परम स्वाद सवही सु निरन्तर अमित तोप उपजावे।। मन वानी को अगम अगोचर जो जानै सो पावै। रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन द्यावै। सब विधि अगम विचारहिं तातें सूर सगुन पद पावै।।३७५
सूर के गोपाल पूर्ण ब्रह्म है। मूल रूप में वे निर्गुण है पर सूर ने उन्हें सगुण के रूप में ही प्रस्तुत किया यद्यपि है सगुण और निर्गुण, दोनों का आभास हो जाता है।
तुलसी भी सुगणोपासक है पर सूर के समान उन्होंने भी निर्गुण रूप को महत्त्व दिया है। उनको भी केशव का रूप अकथनीय लगता
केशव ! कहि न जाइ का कहिये। देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये।। सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तनु बिनु लिखा चिर्नीर। धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइअ एहि तनु हेरे।। रविकर-नीर बसे अति दारुन मकर रूप तेहि माही। वदन-हीन सो ग्रसे चराचर, पान करन जे जाहीं।।