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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ७) सात समुद्र - षट्चक्र और सतवां सहस्रार। ८) मंडप - ब्रह्मरन्ध्र में जीवात्मा परमात्मा का मिलन
यहां रतनसेन एक साधक की आत्मा को व्यंजित करने वाला तत्त्व है जिसमें स्वयं की अनन्त शक्ति भरी हुई है। वह मन का प्रतीक है जो नागमति रूपिणी माया में आसक्त है। तोता रूप गुरु के मिल जाने पर उसकी ज्ञान बुद्धि जाग्रत हो जाती है और वह पद्मावत रूपी शुद्धबुद्ध शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। साध्य के दर्शन में साधक के लिए भूख-प्यास की भी बाधा प्रतीत नहीं होती। उसका दर्शन दीपक के समान है जहां वह पतंग के समान भिखारी बन जाता है। प्रियतम का दर्शन मात्र ही साधक का अज्ञान दूर करने में पर्याप्त होता है। तोते रूपी गुरु के मुख से पद्मावती रूपी साध्य पुरुष का रूप वर्णन सुनकर रतनसेन रूपी साधक मूर्छित हो गया। उह उसके प्रेम से तड़पने लगा। संसार के मायाजाल में फंसे रहने के कारण साधक साध्य का दर्शन नहीं कर पाता और यही उसके विरह का कारण होता है। अन्ततोगत्वा रतनसेन (साधक) 'दुनिया का धन्धा' रूपिणी नागमती को छोड़कर पद्मावती रूपी परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। फिर भी उसका मन पूर्णतः परिष्कृत न होने से पतित हो जाता है और भव-सागर में डूबता उतरता रहता है। साधक को जब इस तथ्य का अनुभव होता है तब वह पश्चात्ताप करता है कि मैने तो 'मोरमोर' कहकर अहंकार और माया सब कुछ गंवा दिया। पर परमात्मा (पद्मावती) का साक्षात्कार नहीं हुआ। वह परमात्मा रूप पद्मावती कहां है ? २२२ वह विरह ही रहस्यवादी साधक का प्राण है। वही उसकी जिजीविषा है । इस विरह को जायसी ने 'प्रेम-घाव' के रूप में चित्रित