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378 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना तथा निर्गुणता का वर्णन इस प्रकार किया है -
ब्रह्म निरीह निरामय निर्गुन नित्य निरंजन और न भासै ।। ब्रह्म अखण्डित है अध ऊरध बाहिर भीतर ब्रह्म प्रकासै । ब्रह्महि सूच्छमस्थूल जहांलगिब्रह्महि देखत ब्रह्मतमासै ।१०
तुलसीदास ने राम के स्वरूप का वर्णन करते हुए उन्हें सगुणनिर्गुण रूप माना है। उन्होंने ब्रह्म को नित्य, निर्भय, सच्चिदानन्द, ज्ञानधन, विमल, व्यापक, सिद्ध आदि विशेषणों से अभिहित किया
है -
नित्य निर्भय, नित्य मुक्त निर्मान हरि ज्ञानधन सच्चिदानंद मूलं । सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष कूटस्थ गूढाचि भक्तानुकूलं ।। सिद्धि साधक साध्य, वाच्य वाचकरूपमंत्र-जापक-जाप्य, सृष्टि-सष्टा । परमकारन कंजनाभ, सगुन, निर्गुना सकल-दुश्य-दुष्टा ।। व्योक व्यापक बिरज ब्रह्म बरदैस बैकुंठ वामन विमल ब्रह्मचारी । सिद्ध वृन्दास्कावृंद वंदित सदा खंड पाखंड निर्मूलकारी ।। पूरनानंद संदोह अपहरन संमोह अज्ञान गुनसन्निपातं । बचन मन कर्म गत सन तुलसीदास, त्रास पाथोधि इव कुंभजानं ।।११
सूर को सगुणवादी कहा जाता है पर उन्होंने निर्गुण रूप का भी भक्तिवशात् व्याख्यान किया है -
शोभा अमित अपार अखिण्डत आप आतमाराम । पूरन ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम सब विधि पूरन काम । आदि सनातन एक अनुपम अविगत अल्प अहार । ओंकार आदि वेद असुर हन निर्गुण सगुण अपार ।।"