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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
और भावना, गुरु की प्रधानता और मार्ग । ये चारों तत्त्व प्राचीन भारतीय साहित्य की आध्यात्मिक और दार्शनिक परम्परा से जुड़े हुये हैं । 'आस्तिकता' का तात्पर्य है आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करना। 'प्रेम और भावना' का सम्बन्ध अपने आराध्य के प्रति व्यक्त आध्यात्मिक प्रेम से है । इस प्रेम के अन्तर्गत प्रपत्ति मूलक दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति की जाती है । 'गुरु' परमसत्य का साक्षात्कार करने वाला होता है और 'मार्ग' में साक्षात्कार करने का पथ निर्दिष्ट किया जाता है ।
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उपर्युक्त तत्त्वों में से हम आस्तिकता और गुरु पर पीछे विचार कर चुके हैं। प्रेम को हम दूसरे शब्दों में भक्ति - प्रपत्ति कह सकते हैं। प्रपत्ति का तात्पर्य है अपने इष्टदेव के शरण में जाना । साधक की भक्ति उसे इस प्रपत्ति की ओर ले जाती है। अनुकूल का संकल्प अथवा व्यवहार करना, प्रातिकूल्य का छोड़ना, भगवान रक्षा करेंगे ऐसा विश्वास होना, भगद्गुणों का वर्णन, आत्म निक्षेप और दीनता इन छः अंगों के माध्यम से भक्त अपने आराध्य की शरण में जाता है।' मध्यकालीन हिन्दी सन्तों में प्रपन्न भक्तों के लगभग सभी गुण उपलब्ध होते हैं।
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"अनुकूल्यस्य संकल्प” का तात्पर्य है भगवान के अनुकूल आचरण करना, ऐसे सत्कार्य करना जो भगवद्भक्ति के लिए आवश्यक हों। कबीर का चिन्तन है कि आत्मा की विशुद्ध परिणिति हरि का दर्शन किये बिना नहीं हो सकती - 'हरि न मिले बिन हिरदै सूध।' उसके बिना तो वह जल में से घृत निकालने के समान असम्भव है - ‘हृदय कपट मुख ग्यांनी, झूठे कहा विलोवसि पानी । तुलसी पश्चात्ताप करते हुए यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अभी तक तो उन्होंने अपना समय व्यर्थ गंवाया पर अब चिन्तामणि मिल गया है। उसे यों ही व्यर्थ नहीं जाने देंगे ।
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