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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 361 कर्म की महत्ता को प्रकट किया है । मीरा ने कर्मो की प्रबल शक्ति को इसी प्रकार प्रकट किया है। बुधजन भी इसी प्रकार कर्मो की अनिवार्य शक्ति का व्याख्यान कर उसे पुराणों से उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं -
कर्मन की रेखा न्यारी रे विधिना टारी नाँहिं टरै । रावण तीन खण्ड को राजा छिन में नरक पडै । छप्पन कोट परिवार कृष्ण के वन में जाय मरे ।।१।। हनुमान की मात अन्जना बन वन रुदन करै । भरत बाहुबलि दोऊ भाई कैसा शुद्ध करै ।।२।। राम अरु लक्ष्मण दोनों भाई कैसासिय के संग वनमांहि फिरे । सीता महासती पतिव्रता जलती अगनि परे ।।३।। पांडव महाबली से योद्धा तिनकी त्रिया को हरै । कृष्ण रुक्मणी के सुत प्रद्युम्न जनमत देव हरै ।।४।। को लग कथनी कीजैं इनकी लिखता ग्रन्थ भरे।
धर्म सहित ये करम कौन सा बुधजन' यों उचरे।।५।। ४. मन
साधना में मन की शक्ति अचिन्त्य है। वह संसार के बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण होता हैं मन को विषय वासनाओं की ओर से हटाकर जब उसे आत्मा में ही स्थिर कर लेते हैं तो वह योगयुक्त अवस्था कही जाती है। कठोपनिषद् में इसी को परमगति कहा गया है। मन, वचन और काय से युक्त जीव का वीर्य परिणाम रूप प्राणियोग कहलाता है। और यही योग मोक्ष का कारण है। इसलिए योगीन्दु ने उसे पंचेन्द्रियों का स्वामी बताया है और उसे वश में करना आवश्यक कहा है। गौड़पाद ने उसकी शक्ति को पहिचानकर संसार को मन का प्रपंच मात्र कहा है। कबीर ने माया और मन के सम्बन्ध को अविच्छिन्न कहकर उसे सर्वत्र दुःख और पीड़ा का कारण कहा