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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना है। माया मन को उसी प्रकार बिगाड़ देती है जिस प्रकार कांजी दूध को बिगाड़ देती है । मन से मन की साधना भी की जाती है। मन द्वारा मन के समझाने पर चरम सत्य की उपलब्धि हो जाती है। “चंचल चित्त को निश्चल करने पर हीराम-रसायन का पान किया जा सकता है -
यह काचा खेल न होई जन पटतर खेले कोई । चित्त चंचल निहचल कीजे, तब राम रसायन पीजै ।।
एक अन्यत्र पद में कबीर मन को संबोधित करते हुए कहते हैं - हे मन ! तू क्यों व्यर्थ भ्रमण करता फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है किन्तु फिर भी तुझे सन्तोष नहीं। तृष्णाओं के पीछे बावला बना हुआ फिरता है। मनुष्य जहां भी पग बढ़ाता है उसे माया-मोह का बन्धन जकड़ लेता है। आत्मा रूपी स्वच्छ स्वर्ण थाली को उसने पापों से कलुषित कर दिया है। ठीक इसी प्रकार की विचार-सरणी बनारसीदास और बुधजन जैसे जैन साधकों ने भी अभिव्यक्त की है। भैया भगवती दास ने कबीर के समान ही मन की शक्ति को पहिचाना और उसे शब्दों में इस प्रकार गूंथने का प्रयत्न किया -
मन बली न दूसरो, देख्यौ इहि संसार ।। तीन लोक में फिरत ही, जातन लागे बार ।।८।। मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ।। मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ।।९।। मन राजा की सेन सब, इन्द्रिन से उमराव ।। रात दिना दौरत फिरै, करे अनेक अन्याव ।।१०।। इन्द्रिय से उमराव जिंह, विषय देश विचरंत ।। भैया तिह मन भूप को, को जीते विन संत ।।१।। मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय ।। मन जीते बिन आतमा, मुक्ति कहो किम थाम ।।१२।।