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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
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मिलने के लिए कितनी आतुर है यह देखते ही बनता है । यहाँ कवियों में कबीर और जायसी एवं मीरा से कहीं अधिक भावोद्वेग दिखाई देता है। संयोग और वियोग दोनों के चित्रण भी बड़े मनोहर और सरस है।
भट्टारक रत्नकीर्ति की राजुल से नेमिनाथ विरक्त होकर किस प्रकार गिरिनार चले जाते हैं, यह आश्चर्य का विषय है कि उन्हें तो नेमिनाथ पर तन्त्र-मन्त्र मोहन का प्रभाव लगता है - "उन पे तंत मंत मोहन है, वैसी नेम हमारो ।” सच तो यह है कि "कारण कोउ पिया को न जाने ।” पिया के विरह से राजुल का संताप बढ़ता चला जाता है और एक समय आता है जब वह अपनी सखी से कहने लगती है - "सखी री नेम न जानी पीर" "सखी को मिलावो नेम नरिन्दा' 'सखी सावन घटाई सतावे । '
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भट्टारक कुमुदचन्द्र और अधिक भावुक दिखाई देते हैं। असह्य विरह-वेदना से सन्तप्त होकर वे कह उठते हैं - सखी री अब तो रह्यो नहीं जात। हेमविजय की राहुल भी प्रिय के वियोग में अकेली चल पड़ती है उसे लोक मर्यादा का बंधन तोड़ना पड़ता है। घनघोर घटायें छायी हुई हैं, चारों तरफ बिजली चमक रही है, पिउरे पिउ रे की आवाज पपीहा कर रहा है, मोरें कंगारों पर बैठकर आवाजें कर रही
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हैं । आकाश से बूंदें टपक रही हैं, राजुल के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग जाती है। " भूधरदास की राजुल को तो चारों ओर अपने प्रिय के बिना अंधेरा दिखाई देता है। उनके बिना उसका हृदय रूपी अरविन्द मुरझाया पड़ा है। इस वेदना को वह अपनी मां से भी व्यक्त कर देती है, सखी तो ठीक ही है - “बिन पिय देखें मुरझाय रह्ययो हे, उर अरविन्द हमारो री।। राजुल के विरह की स्वाभाविकता वहां और अधिक दिखाई देती है जहां वह अपनी सखी से कह उठती है - "तहाँ ले चल री
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