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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
135 सुमति-कुमति-कुमति बारहमास, विनयचन्द्र का नेमिनाथ बारहमास (१८वीं शती) आदि रचनाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं। ये रचनाएं अध्यात्म और भक्तिपरक हैं । इसी तरह की और भी शताधिक रचनाएं है जो रहस्य साधना की पावन सरिता को प्रवाहित कर रही है। स्वतन्त्र रूप से बारहमासा १६वीं शती के उत्तरार्ध से अधिक मिलते हैं।
विवाहलो भी एक विधा रही है। जिसमें साधक कवि ने अपने भक्तिभाव को पिरोया है। इस सन्दर्भ में जिनप्रभसूरि (१४वीं शती) का अंतरंग विवाह, हीरानंदसूरि (१५वीं शती) के अठारहनाता विवाहलो और जम्बूस्वामी विवाहलो, ब्रह्मविनयदेव सूरि (सं. १६१५) का नेमिनाथ विवाहलो, महिमसुन्दर (सं १६६५) का नेमिनाथ विवाहलो, सहजकीर्ति का शांतिनाथ विवाहलउ (सं १६७८), विजय रत्नसूरि का पार्श्वनाथ विवाहलो (सं ८वीं शती) जैसी रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। इन काव्यों में चरित नायकों के विवाह प्रसंगो का वर्णन तो है ही पर कुछ कवियों ने व्रतों के ग्रहण को नारी का रूपक देकर उसका विवाह किसी संयमी व्यक्ति से रचाया है। इस तरह द्रव्य और भाव दोनों विवाह के रूप यहां मिलते हैं। ऐसे काव्यों में उदयनंदि सूरि विवाहला, कीर्तिरत्न सूरि, गुणरत्न सूरि सुमतिसाधुसूरि और हेम विमल सूरि विवाहले हैं।
इसी तरह खरतरगच्छीय सोममूर्ति का जिनेश्वरसूरि संयम श्री विवाह वर्णनारास (सं.१३३१-३२) की निम्न पंक्तियां देखिये जिसमें बालक अम्बड संसार की असारता का अनुभवकर अपनी माता से आग्रह करता है -