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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ का प्रयत्न करता है। प्रपत्ति में श्रद्धा और प्रेम की विशुद्ध भावना का अतिरेक होने के फलस्वरूप साधक अपने आराध्य के रंग में रंगने लगता है। तद्रूप हो जाने पर उसका दुविधा भाव समाप्त हो जाता है और समरसभाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। यहीं सांसारिक दुःखों से त्रस्त जीव शाश्वत शांति की प्राप्ति कर लेता है और वीतरागता शुक्लध्यान के रूप में स्फुरित हो जाती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन भक्तों की भावाभिव्यक्ति में इसी प्रकार की शान्ता भक्ति का प्राधान्य रहा है। २. सहज-साधना और समरसता
योग साधना भारतीय साधनाओं का अभिन्न अंग है। इसमें साधारणतः मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया का समावेश किया गया है। उत्तर काल में यह परम्परा हठयोग की प्रस्थापना में मूलकारण रही। इसमें सूर्य और चन्द्र के योग से श्वासोच्छवास का निरोध किया जाता है अथवा सूर्य (इड़ा नाड़ी) और चन्द्र (पिंगला) को रोककर सुषुम्णा मार्ग से प्राणवायु का संचार किया जाता है। उत्तर कालीन वैदिक और बौद्ध सम्प्रदाय से प्राणवायु का संचार किया जाता है। उत्तर कालीन वैदिक और बौद्ध सम्प्रदाय में हठयोग साधना का बहुत प्रचार हुआ। जैन साधना में मनि योगीन्दु, मुनि रामसिंह और आनंदघन में इसके प्रारंभिक तत्त्व अवश्य मिलते हैं। पर उसका वह वीभत्स रूप नहीं मिलता जो उत्तरकालीन वैदिक अथवा बौद्ध सम्प्रदाय में मिलता रहा है। जैन-साधना का हठयोग जैनधर्म के मूल भाव से पतित नहीं हो सका। उसे जैनाचार्यों ने अपने रंग में रंगकर अन्तर्भूत कर लिया। योग-साधना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य भी जैन साधकों ने लिखा है। उसमें योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशति, योगशास्त्र आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं।