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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना पर सत्कर्मो के कारण प्राप्त हो सका है। पर उसे हम विषय-वासनादि विकार-भव रूप काचमणि से बदल रहे हैं। जैसे कोई व्यक्ति धनार्जन की लालसा से विदेश यात्रा करे और चिन्तामणि रत्न हाथ आने पर लौटते समय उसे पाषाण समझ कर समुद्र में फेंक दे। उसी प्रकार कोई भवसागर में भ्रमण करते हुए सत्कर्मो के प्रभव से नरजन्म मिल जाता है पर यदि अज्ञानवश उसे व्यर्थ गवा देता है तो उससे अधिक मूढ और कौन हो सकता है ?" सोमप्रभाचार्य के शब्दों को बनारसीदास ने पुनः कहा कि जिसप्रकार अज्ञानी व्यक्ति सजे हुए मतंगज से ईंधन ढोये, कंचन पात्रों को धूल से भरे, अमृत रस से पैर धोये, काक को उड़ाने के लिए महामणि को फेंक दे और फिर रोये, उसी प्रकार इस नरभव को पाकर यदि निरर्थक गंवा दिया तो बाद में पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजिमतंगज ईंधन ढोवै । कंचन भाजन धूल भरै शत्, मूढ सुधारस सौं पग धोवै ।। बाहित काग उड़ावन कारण, डार महामणि मूरख रोवै । त्यौं यह दुर्लभ देह बनारसि' पाय अजान अकारथ खोवै ।।
द्यानतराय ने 'नहि ऐसा जनम बारम्बार' कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता तो 'अंध हाथ बटेर आई, तजत ताहि गंवार' वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी। भैया भगवतीदास ने व्यक्ति को पहले उसे सांसारिक इच्छाओं की ओर से सचेत किया है और फिर नरजन्म की दुर्लभता की ओर संकेत किया। जीव अनादिकाल से मिथ्याज्ञान के वशीभूत होकर कर्म कर रहा है। कभी वह रामा के चक्कर में पड़ता है