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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना व्यवहारतः वह जीव है और निश्चय नय से वह शिव रूप है। जीव शिव की पूजा करता है और बाद में शिव रूप को प्राप्त करता है। कवि ने यहां निर्गुण और सगुण दोनों भक्ति धाराओं को एकत्व में समाहित करने का प्रयत्न किया है। जीव शिव रूप जिनेन्द्र की पूजा साध्य की प्राप्ति के लिए करता है। बनारसीदास ने अपनी प्रखर प्रतिभा से उसी शिव को सिद्ध में प्रस्थापित कर दिया है । तनमंडप रूप वेदी है उस पर शुभलेश्या रूप सफेदी है। आत्म रुचि रूप कुण्डली बनी है, सद्गुरु की वाणी जललहरी है उसके सगुण स्वरूप की पूजा होती है। समरस रूप जल का अभिषेक होता है, उपशम रूप रस का चन्दन घिस जाता है, सहजानन्द रूप पुष्प की उत्पत्ति होती है, गुण गर्भित 'जयमाल' चढ़ायी हाती है। ज्ञान-दीप की शिखा प्रज्ज्वलित हो उठती है, स्याद्वाद का घंटा झंकारता है, अगम अध्यात्म चवर डुलाते हैं, क्षायक रूप धूप का दहन होता है। दान की अर्थ-विधि, सहजशील गुण का अक्षत, तप का नेवज, विमलभाव का फल आगे रखकर जीव शिव की पूजा करता है और प्रवीण साधक फलतः शिवस्वरूप हो जाता है। जिनेन्द्र की करुणारस में पगी वाणी सुरसरिता है, सुमति अर्धागिनी गौरी है, त्रिगुणभेद नयन विशेष है, विमलभाव समकित शशि-लेखा है। सुगुरु -शिक्षा उर में बंधे श्रृंग हैं। नय व्यवहार कंधे पर रखा वाघाम्बर है। विवेकबैल, शक्ति विभूति अंगच्छवि है। त्रिगुप्ति त्रिशूल है, कंठ में विभावरूप विषय विष हैं, महादिगम्बर योगी भेष है, ब्रह्म समाधिछपन घर है अनाहद-रूप डमरू बजता है, पंच-भेद शुभज्ञान है और ग्यारह प्रतिमायें ग्यारह रुद्र हैं। यह शिव मंगल कारण होने से मोक्षपथ देने वाला है। इसी को शंकर कहा गया है, यही आश्रय निधि स्वामी, सर्वजग अन्तर्यामी और आदिनाथ हैं। त्रिभुवनों का त्याग कर शिववासी होने से त्रिपुर हरण कहलाये। अष्ट कर्मो से अकेले संघर्ष