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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना चिन्तामन रतन, कल्पवृक्ष, कामधून,
सुख के समान सब याकी परछांही है, कहैं मुनि हर्षचन्द निर्षदेयज्ञान दृष्टि ऊंकार,
___ मंत्र सम और मन्त्र नाही हैं ।। बनारसीदास और तुलसीदास समकालीन हैं। कहा जाता है, तुलसीदास ने बनारसीदास को अपनी रामायण भेंट की और समीक्षा करने का निवेदन किया। दूसरी बार जब दोनों सन्त मिले तो बनारसीदास ने कहा कि उन्होंने रामायण को अध्यात्म रूप में देखा है। उन्होंने राम को आत्मा के अर्थ में लिखा है और उसकी समूची व्याख्या कर दी है। आत्मा हमारे शरीर में विद्यमान हैं अध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी इस तथ्य को समझता है। मिथ्यादृष्टि उसे स्वीकार नहीं करता। आत्मा राम है, उसका ज्ञान गुण लक्ष्मण है, सीता सुमति है शुभोपयोग वानर दल है, विवेक रणक्षेत्र है, ध्यान धनुष टंकार है जिसकी आवाज सुनकर ही विषयभोगादिक भाग जाते हैं, मिथ्यातम रूपी लंका भस्म हो जाती है, धारणा रूपी आग उग जाती है, अज्ञान भाव रूप राक्षसकुल उसमें जल जाते हैं, निकांक्षित रूप योद्धा लड़ते है, रागद्वेष रूप सेनापति जूझते हैं, संशय का गढ़ चकनाचूर हो जाता है, भवविभ्रम का कुम्भकरण विलखने लगता है मन का दरयाव पुलकित हो उठता है, महिरावण थक जाता है। समभाव का सेतु बंध जाता है, दुराशा की मंदोदरी मूर्छित हो जाती है, चरण (चरित्र) का हनुमान जाग्रत हो जाता है, चतुर्गति की सेना घट जाती है, छपक गुणके बाण छूटने लगते हैं, आत्मशक्ति के चक्र सुदर्शन को देखकर दीन विभीषण का उदय हो जाता है और रावण का सिरहीन जीवित