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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना चिन्तामणि और अमृत-सा लगता है जो समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला और सुख प्राप्ति का कारण है। द्यानतराय प्रभु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो अघजाल को नष्ट करने में कारण होता है
रे मन भज-भज दीन दयाल ।। जाके नाम लेत इक खिन में, कटै कोटि अघ जाल ।।१।। परब्रह्म परमेश्वर स्वामी देखत होत निहाल । सुमरण करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ।।१।। इन्द्र फणीन्द्र चक्रधर गावें, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकासैं, नासै मिथ्याजाल ।।३।। जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पताल । सोई नाम जपौ नित द्यानत, छांड़ि विषै विकराल ।।४।।
प्रभु का यह नामस्मरण (चितवन) भक्त तब तक करता रहता है जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता। 'जैनाचार्यो ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है। स्मरण पहले तो रुक-रुककर चलता है, फिर शनैः शनैः उसमें एकान्तता आती जाती है, और वह ध्यान का रूप धारण कर लेता है । स्मरण में जितनी अधिक तल्लीनता बढ़ती जायेगी वह उतना ही तद्रूप होता जायेगा। इससे सांसारिक विभूतियों की प्राप्ति होती अवश्य है किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने आध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है। प्रभु के समरण पर तो लगभग सभी कवियों ने जोर दिया है किन्तु ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की अपनी विशेषता है। इस प्रकार के ध्यान से भक्त कवि का दुविधाभाव समाप्त हो जाता है और उसे हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की सारी निधियां भी