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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ तुच्छ लगती है। वह समता रस का पान करने लगता है । समकित दान में उसकी सारी दीनता चली जाती है और प्रभु के गुणानुभव के रस के आगे और किसी भी वस्तु का ध्यान नहीं रहता - हम मगन भये प्रभु ध्यान में विसर गई दुविधा तन मन की, अचिरा सुत गुन गान में ।। हरि-हर-ब्रह्म-पुरन्तर की रिधि, आवत नहिं कोउ मान में । चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में ।। इतने दिन तूं नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायो अजान में । अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभु गुन अखय खजान में ।। गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में । प्रभु गुन अनुभव के रस आगे, आवत नहिं कोइ ध्यान में ॥४
जगजीवन भी प्रभु के ध्यन को बहुत कल्याणकारी मानते हैं।"द्यानतराय अरहन्त देव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। के ख्यातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकटतर पहुंचना चाहते हैं।" इसी प्रकार एक पद में मन को इधर-उधर न भटकाकर जिन नाम के स्मरण की सलाह दी है क्योंकि इस से संसार के पातक कट जाते हैं -
जिन नाम सुमरि मन बावरे, कहा इत उत भटके । विषय प्रगट विष बेल है इनमें मत अटके ।। द्यानत उत्तम भजन है कीजै मन रटकैं। भव भव के पातक सवै जैहे तो कटकैं ।।१
भक्त कवि अपने इष्टदेव के चरणों में बैठकर उनका उपदेश सुनता है फलतः उसके राग द्वेषदूर हो जाते हैं और वह सदैव भगवान के चरणों में रहकर उनकी सेवा करना चाहता है। बनारसीदास ने भगवान की स्तुति करते हुए उन्हें देवों का देव कहा है। उनके चरणों