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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
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युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीट । अधर विद्रुम सम उपमा, दंत नू निर्मल नीर ।। चिदुक कमल पर षट्पद, आनन्द करै सुधापान । ग्रीवा सुन्दर सोमीत कम्ब कपोलने बान ।।
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कुछ फागुओं में अध्यातम का वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से बनारसीदास का अध्यातम फाग उल्लेखनीय है जिसमें कविने फाग के सभी अंग प्रत्यंगों का सम्बन्ध अध्यात्म से जोड दिया है -
भवपरणति चाचरित भई हो, अष्टकर्म बन जाल । अलख अमूरति आतमा हो, खेलै धर्म धमाल ।। नयपंकति चाचरि मिलि हो ज्ञान ध्यान उफताल । पिचकारी पद साधना हो संवर भाव गुलाल ||
ऐतिहासिक काव्य के साथ ही आध्यात्मिक वेलियाँ भी मिलती हैं। इन आध्यात्मिक वेलियों में 'पंचेन्द्रिय वेलि' विशेष उल्लेखनीय है जिसमें कवि ठाकुरसी ने पंचेन्द्रियविषय वासना के फल को स्पष्ट किया है। स्पर्शेन्द्रिय में आसक्ति का परिणाम है कि हाथी लौह श्रृंखलाओं से बंध जाता है और कीचक, रावण आदि दारुण दुःख पाते हैं।
वन तरुवर फल सउँ फिरि, पय पीवत हु स्वच्छंद। परसण इन्द्री प्रेरियो, बहु दुख सहै गयन्द ।। बाध्यो पाग संकुल घाले, सो कियो मसकै चाले । परसण प्ररेहं दुख पायो, तिनि अंकुश धावा धायो । । परसण रस कीचक पूरयौ, सहि भीम शिलातल चूर्यो । परसण रस रावण नामइ, वारचौ लंकेसुर रामइ ।। परसण रस शंकर राच्यौ तिय आगे नट ज्यौ नाच्यो ।। '