________________
162
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जाता । आ० परशुराम चतुर्वेदी ने रहस्यवाद की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए लिखा है - "रहस्यवाद एक ऐसा जीवन दर्शन है जिसका मूल आधार किसी व्यक्ति के लिए उसकी विश्वात्मक सत्ता की अनिर्दिष्ट वा निर्विशेष एकता वा परमात्म तत्त्व की प्रत्यक्ष एवं अर्निवचनीय अनुभूति में निहित रहा करता है और जिसके अनुसार किये जाने वाले उसके व्यवहार का स्वरूप स्वभावतः विश्वजनीन एवं विकासोन्मुख भी हो सकता है। महादेवी वर्मा रहस्यानुभूति में बुद्धि के ज्ञेय को ही हृदय का प्रेय मान लेती है।" डॉ.त्रिगुणायत के अनुसार जब साधक भावना के सहारे आध्यात्मिक सत्ता की रहस्यमयी अनुभूतियों को वाणी के द्वारा शब्दमय चित्रों में सजाकर रखने लगता है, तभी साहित्य में रहस्यवाद की सृष्टि होती है ।" डॉ० प्रेमसागर ने रहस्यवाद को आत्मा और परमात्मा के मिलन की भावात्मक अभिव्यक्ति कहा है । डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल आध्यात्मिकता की उत्कर्ष सीमा का नाम रहस्यवाद निश्चित करते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा के स्वर में स्वर मिलाकर डॉ. रूपनारायण पाण्डे ने रहस्यवाद को मानव की उस आंतरिक प्रवृत्ति का प्रकाशन माना है जिससे वह परम सत्य परमात्मा के साथ सीधा प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ना चाहता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं को समीक्षात्मक दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि विद्वानों ने रहस्यवाद को किसी एक ही दृष्टिकोण से विचार किया है। किसी ने उसे समाजपरक माना है तो किसी ने विचारपरक, किसी ने अनुभूतिजन्य माना है तो किसी ने उसकी परिभाषा को विशुद्ध मनोविज्ञान पर आधारित किया है, तो किसी ने दर्शन पर, किसी ने उसे जीवन दर्शन माना है,तो किसी ने उसे व्यवहार प्रधान बताया है।