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प्राक् कथन!
पाठक महानुभावों! -
संसार में वास्तविक आदर्श-पवित्रात्मा बनने के लिए किन-किन शिष्ट-गुणों की आवश्यकता है और किन पाशविक दुर्गुणों को छोड़कर, मनुष्य आदर्श बन जाता है ? इस विषय को स्पष्ट, सरस और सरलता से समझाने के लिए आज यह हिन्दी पुस्तक आपके करकमलों में उपस्थित होता है।
"मनुष्य, मनुष्य तभी से बनता है, जब वह दुष्ट-विचार और कुव्यसनों से अलग होकर अपने जीवन की वास्तविक न्याय-परायणता को खोजने का प्रयल करने लगता है।" . ___मनुष्य योग्य, गुण सम्पन्न और अखंडानन्दी तभी बनता है, जब वह गुणानुराग का शरण (आश्रय) लेता है। संसार में हर एक मनुष्य की उत्क्रांति (उच्चदशा) गुणानुराग की सुन्दर और श्लाघनीय भूमिका में प्रवेश करने से ही होती है।" .. . ... ___"यह सिद्धांत सभी को अपने निर्दोष हृदय में अंकित कर लेना चाहिए कि - मनुष्य ही शक्ति, ज्ञान और प्रेम का स्थूल रूप है और अपने भले-बुरे विचारों का स्वामी है। वह अपनी उन्नतावस्था की व्यवस्था का स्वतंत्र अधिकारी है। उसकी निर्बलता या सबलता, शुद्धता या अशुद्धता का जुम्मेवार वह खुद है, दूसरा कोई नहीं। उसको वही बदल सकता है, न कि कोई दूसरा। सुख और दुःख उसी ने उत्पन्न किये हैं और वही उनका भोक्ता या हटाने वाला है।"