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- गुरुपदकज-प्रेमोपहार - यच्छायास्वपि शीतलासु रिपवः संस्थाय शान्तिङ्गता
स्ते भव्या इह शर्ममाज अभवन्नाश्रित्य यस्याश्रयम् । यस्यालौकिकशक्तिभारवशतश्चिन्तामणिः सत्रपोऽ
भूत्तस्मै सततं नमो भवतु मे राजेन्द्र सूर्यपये ॥१॥ जिनकी सुशीतल (ठंडी) छाया में बैठकर धर्मद्वेषी भी शांति को प्राप्त हुए, जिनका आश्रय लेकर अनेक भव्यों ने अपनी आत्मा का कल्याण किया और जिनकी अलौकिक शक्ति के वश से चिंतामणि - रत्न भी लज्जित हुआ; उन श्री राजेन्द्रसूरिजी के चरण युगलों को मेरा सदा नमस्कार हो। यज्जानांशुसमूहदीप्तिवशतो नष्टच मिथ्यातमो,
दीप्त्या यन्नखरस्य भानुरथ वै चन्द्रस्तथा शङ्कितः। यभीत्या गतवांस्तु भानुरथ खं वाचिङ्गतश्चन्द्रमा
स्तस्मै मे सततं नमोऽस्तुविधिवद् राजेन्द्र सूर्यङ्ग्रये ॥२॥
जिनके ज्ञानपुञ्ज के तेजः प्रभाव से मिथ्यान्धकार नष्ट हुआ, जिनकी • नखद्युति से सूर्य तथा चन्द्र शङ्कित हुए और जिस नखद्युति से भयभीत होकर सूर्य
ने आकाश का तथा चन्द्रमा ने समुद्र का आश्रय लिया, उन श्री राजेन्द्रसूरिजी के चरण-युगल को विधि पूर्वक मेरा सदा नमस्कार हो। . जैनाभाससुवक्त्ररन्धनिस्टताऽसद्भाषणार्चिषु च,
भस्मीभूतजनाश्च येन बहुधा शान्त्या सदा रक्षिताः। शान्त्या पूर्णतया हि ते च कृपया तत्त्वामृतैर्जीविता- .
स्तस्मै मे भतन्नमः प्रतिदिनं राजेन्द्रसूर्यप्रये ॥३॥
जिन्होंने जैनाभासों के मुखकुहर से निकली हुई असद्वचन- रूप ज्वालाओं में भस्म होते हए अनेक भव्य-प्राणियों की रक्षा की और उनको तत्व . श्रद्धारूप अमृत से जीवित किये; श्री राजेन्द्रसूरिजी के चरण-युगलों को हमारा ' प्रतिदिन नमस्कार हो।