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आमुख
महर्षि पाणिनिए अष्टाध्यायी रची, तेमां लौकिक संस्कृतने लगतां ज विधानो कर्या, बच्चे बच्चे "छन्दसि बहुलम् " " छन्दसि उभयथा " एवां वैदिक विधानो पण मूक्यां. पाणिनि कोई पण विधान करती वखते प्रथम लौकिक संस्कृतने लगतुं विधान करे छे अने पछी खास फेरफार बताववा वैदिक विधानने मूके छे. आनो अर्थ एवो नथी के वैदिक भाषानी प्रकृतिरूप लौकिक संस्कृत भाषा छे अथवा लौकिक संस्कृत भाषामांथी वैदिक भाषा जन्मी छे, ए तो शब्दोनी परस्पर तुलनात्मक परीक्षामाटे अमुक भाषाने वाहनरूपे राखवी आवश्यक छे, दृष्टि ज पाणिनिए वेदोनी भाषानुं व्याकरण बनाववा माटे लौकिक संस्कृतने अग्रस्थान आप्युं छे.
जेम 'वैदिक' ने समझाववा संस्कृत
वाहनरूप छे
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४६ पाणिनिए वेदोनी भाषानुं व्याकरण प्रथम रच्युं होत अने त्यार पछी ज लौकिक संस्कृतमां थता विशेष फेरफारो पाणिनिना सम- दर्शाव्या होत तो ए, भाषातत्त्वना क्रमविकासनी यनो शिक्षितवर्ग दृष्टिए वधारे उचित थात. परंतु एमना समये संस्कृतप्रिय वेदोनी भाषा जीवती न हती अने एमना वखतनो भोगणेलो समाज खास करीने याज्ञिक समाज लौकिक संस्कृतो विशेष पक्षपाती हतो. तेमणे ए भणेला वर्गनी रुचि तरफ लक्ष्य राखीने पोताना व्याकरणमा लौकिक संस्कृतने प्रथम स्थान आप्युं छे अने बीजुं स्थान वैदिक भाषाने माटे राख्युं छे. तात्पर्य ए के पाणिनिए वैदिकभाषानी पद्धति समझाववा माटे लौकिक संस्कृतने वाहन तरीके वापर्यु छे, तेम प्राकृतभाषाना व्याकरणोने बनावनारा ते ते आचार्योए तुलनात्मक दृष्टिए प्राकृतभाषानी रचनाने समझाववा सारु ज लौकिक संस्कृतने वाहन तरीके
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