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आमुख
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आ उपरांत ए उभयप्राकृतमां एक एवो शब्दसमूह छे, जे वैदिक
शब्दो साथै कोई प्रकारनुं साम्य धरावतो नथी, तेम देश्य एटले तळपदी जेमां 'अमुक अंश धातु - प्रकृति - अने अमुक अंश प्रत्यय' एवो विभाग थई शकतो नथी, एवो तळपदी शब्दसमूह 'देशी' चा 'देश्य' प्राकृतना नामथी ख्यात छे. आवो देश्य शब्दसमूह अतिप्राचीन समयथी चाल्यो आवे छे. तेमां बे प्रकारना शब्दो भळेला छे. एक आर्यसंतानी ने बीजा अनार्यसंतानीय. गमे ते एक वा अनेक अर्थोमां आर्योए संकेतेला शब्दो जेमनी व्युत्पत्ति आज हजारो वर्षथी खोवाई गई छे, ( संभव छे के संकेत करती वखते आर्यो पासे तेमनी व्युत्पत्ति होय पण खरी ) तेवा, प्राकृत तेम ज संस्कृतमां ऊतरी आवेला शब्दोने आर्यसंतानीय देश्य समझवा अने आर्योनी साथै आदिम जातिओना गाढ परिचयने ली आदिम जातिओनी भाषाना जे केटलाक शब्दो आर्यभाषामा पेसी गया अने जेमने आर्योए पोतानी उच्चारण
आर्य संतानीय देश्य अने अनार्य संता
नीय देश्य
दाढा - दंष्ट्रा पुरम - पूर्व
-अधस्तात्
हत्थी - हस्ती
मंत - मन्त्र
भक्त-भक्त
रुक्ख-वृक्ष
उक्त शब्दोमां जेम 'हत्थी' अने 'हस्ती' वगेरे शब्दो तत्सम छे तेम ' पूर्व - पुरिम' 'दंष्ट्रा - दाढा ' ' वृक्ष - रुक्ख' वगेरे शब्दो पण तत्सम ज छे. वैयाकरणोए तो पोतानी सगवड माटे आदेशोनी कल्पना करी छे. परंतु खरी रीते ते आदेशरूप कल्पायेला बधा य शब्दो तत्सम ज छे. आ रीते जेनुं साम्य न जाणी शकाय ते 'देश्य' अने जेनुं साम्य जाणी शकाय ते ' तत्सम' एवा बे ज विभाग करीए तो 'तद्भव' के ' संस्कृतयोनि' शब्दोथी जे गोटाळो ऊभो थयो छे ते नहीं रहे अने तुलनात्मक पद्धतिए निरीक्षण करवानी प्रथाने विशेष प्रोत्साहन मळशे. विशेष माटे जुओ-'देश्य प्राकृत अने तेना शब्दोनां मूल ' ( बुद्धिप्रकाश १९४१, मार्च - जून पृ० ९५ )
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