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५८२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
गंगामज्जन हरि उच्चरइ सदा साधुमारगि सांचरइ । श्रद्धासहित करइ खटकर्म एनइ कहि ते दंभक धर्म ॥ १२ ॥
(पृ० १७)
दिगंबर आव्यु सभा पुस्तक पाणिं धरंत, कहइ कथा सिद्धांतनी नमो नमो अरिहंत ॥ १६ ॥ आप विमल काया मलिन झिरइ सदा नवद्वार,
ते जलि किम निर्मल हुइ गाथा कहि विचार ॥ १७॥ वस्तु-सुणु श्रावक सुणु श्रावक परम सिद्धांतः
क्रोध-लोभ परहरीइ मति गुरुभक्ति आदरकर खटरस भोजन विविधपरि प्रणाम करी आगलि धरु जीवदया-मति विस्तर छोडु निंदाभाव, गुरु अवगुण देखी करी करता रखे कुभाव ॥ १८ ॥ गुरुनां चरण उपासता मनि न धरता रीस, आगइ पाम्या केवली तीर्थंकर चुवीस ॥ १९ ॥ श्रद्धा प्रति क्षपणक कहइ सांभलि माह्री वाणि, श्रावक कुल छोडइ रखे ए शीखामण जाणि ॥ २० ॥
ते देखी शांति टलवली, करुणासहित वीमासइ वली; ए तां रूपई दीसइ इशी श्रद्धा हुइ पणि तामसी ॥ २१ ॥ वली जोएवा उपक्रम किउ, भिक्षुक एक सभां आविउ; मस्तक मुण्डित पुस्तक पाणिं वदइ ते बोधागमवाणि ॥ २२ ॥
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