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गणधर गौतम : परिशीलन
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प्रभु ने उसी समय ईस्वी पूर्व ५५७ में वैशाख सुदि ११ के दिन पचास वर्षीय इन्द्रभूति को अपने छात्र-परिवार के साथ प्रव्रज्या प्रदान कर अपना प्रथम शिष्य घोषित किया।
अन्य १० यज्ञाचार्यों की दीक्षा
"इन्द्रभूति छात्र-परिवार सहित सर्वज्ञ महावीर का शिष्यत्व अंगीकार कर निर्ग्रन्थ/श्रमण बन गये हैं।" संवाद बिजली की तरह यज्ञ मण्डप में पहुंचे तो शेष दसों याज्ञिक प्राचार्य किंकर्तव्य-विमूढ़ से हो गये। सहसा उनको इस संवाद पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि देश का इन्द्रभूति जैसा अप्रतिम दुर्धर्ष दिग्गज विद्वान् जो सर्वदा अपराजेय रहा वह किसी निर्ग्रन्थ से पराजित होकर उसका शिष्य बन सकता है । सब हतप्रभ से हो गये। किन्तु, अग्निभूति चुप न रह सका और वह आग-बबूला होकर, अपने अग्रज को बन्धन से छुड़ाने के लिए अपने छात्र-समुदाय के साथ महावीर से शास्त्रार्थ करने के लिये गर्व के साथ समवसरण की ओर चल पड़ा। महावीर के समक्ष पहुँचते ही उसने भी अपनी शंका का समाधान हृदयंगम कर छात्रपरिवार सहित उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इस प्रकार क्रमशः वायुभूति आदि नवों कर्मकाण्डी उद्भट विद्वान् महावीर के पास पहुँचे और उनसे अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर अपने छात्र-परिवार सहित प्रभु के शिष्य बन गये ।*
* इन गणधरों की शंकाएँ और समाधान का विशेष अध्ययन करने
हेतु देखें-गणधरवाद
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