Book Title: Gautam Ras Parishilan
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 146
________________ १२६ गौतम रास : परिशीलन परन्तु, हे त्रिभुवन नाथ ! आपने जानते हुए भी लोक-व्यवहार जैसी सामान्य मर्यादा का पालन भी नहीं किया ! हे स्वामिन् ! आपने समझा होगा कि विदाई के समय मैं आपसे केवलज्ञान की याचना करूंगा, अतः मुझे दूर भेजकर आपने बहुत ही शोभनीय कार्य किया है ? आपने सोचा होगा-मुक्तिवधू से मिलन के समय यह गौतम बालक की तरह पिण्डली/पैर पकड़ कर बाधक बन जायेगा, अतः दूर कर दिया ! प्रभु आपने बहुत अच्छा कार्य किया ! ।।३४।। हुँ किम ए वीर जिणिद, भगतिहि भोले भोलव्यु ए, आपणु ए अविहड नेह, नाह न संपइ साचव्यु ए। साचउ ए ए वीतराग, नेह न हेजई लालियु ए, तिरिण समि ए गोयम चित्त, र ग-विरागइ वालियु ए ॥३५॥ हे मेरे जिनेन्द्र महावीर ! मैं तो भोला/सरल स्वभावी/ भद्र होने के कारण आपके चरणों की सेवावश पागल बन गया था। मेरा तो आपके प्रति अविहड निश्छल स्नेह था। क्या आपने उसे बनावटी प्रेम मानकर ही सम्प्रति मुझे दूर खिसका दिया था ! उपालम्भ देते-देते यकायक हा उनको विचार-धारा ने पलटा खाया। उनके चिन्तन की दिशा बदली। राग का स्थान विराग ने ले लिया। अन्तर्मखी होकर सोचने लगे-अरे गौतम ! तुम ज्ञानी होकर भी बालक की तरह क्या सोचने लगे ! अरे ! तुम प्रभु को ही उपालम्भ देने लगे ! अरे ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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